आचार्य श्रीमधुसूदन सरस्वती जी का श्रीकृष्ण प्रेम
अद्वैतसिद्धि, सिद्धान्तबिन्दु, वेदान्तकल्पलतिका, अद्वैतरत्न-रक्षण और प्रस्थान भेद के लेखक इन प्रकाण्ड नैयायिक तथा वेदान्त के विद्वान ने भक्ति रसायन, गीता की ‘गूढार्थदीपिका’ नामक व्याख्या एवं श्रीमद्भागवत की व्याख्या लिखी। ये कहते हैं- ‘यह ठीक है कि अद्वैत ज्ञान के मार्ग पर चलने वाले मुमुक्षु मेरी उपासना करते हैं; यह भी ठीक है कि आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करके मैं स्वराज्य के सिंहासन पर आरूढ़ हो चुका हूँ; किंतु क्या करूँ, एक कोई गोपकुमारियों का प्रेमी शठ है, उसी हरि ने बलपूर्वक अपना दास बना लिया है’-
अद्वैतवीथीपथिकैरुपास्याः
स्वाराज्यसिंहासनलब्धदीक्षाः।
शठेन केनापि वयं हठेन
दासीकृता गोपवधूविटेन।।
आचार्य जी का कहना है कि भक्ति का फल प्रत्यक्ष भी है और परोक्ष भी। जिस प्रकार गंगा स्नान से ताप पीड़ित मनुष्य को प्रत्यक्ष शान्ति मिलती है और उसका पाप-नाश आदि अदृष्ट फल भी शास्त्रों में कहा गया है, उसी प्रकार भक्ति से प्रत्यक्ष सुख-शान्ति की अनुभूति होती है तथा भक्तिविधायक शास्त्रों से मोक्ष आदि फल की प्राप्ति भी सुनी जाती है-
दृष्टादृष्टफला भक्तिः सुखव्यक्तेर्विधेरपि।
निदाघदूनदेहस्य गंगास्नानक्रिया यथा।।[1]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भक्ति रसायन 2।47
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