आइ गई दव अतिहिं निकटहीं।
यह जानत अब ब्रज न बाँचिहै, कहन चलौ जल-तटहीं।
करि बिचार उठि चलन चहत हैं, जो देखैं चहुँ पास।
चकित भए नरनारि जहाँ-तहँ, भरि-भरि लेत उसास।
झरझराति, भहराति, लपट अति, देखियत नहीं उबार।
देखत सूर अग्नि अधिकानी, नम लौं पहुँची झार।।593।।