अहो नाथ जेइ-जेइ सरन आए तेइ-तेइ भए पावन।
महा पतित-कुल-तारन, एक नाम अध जारन, दारुन दुख बिसरावन।
मोतैं को हो अनाथ, दरसन तैं भयौ सनाथ, देखत नैन जुड़ावन।
भक्त–हेत देह धरन, पुहुमी कौ भार-हरन जनम-जनम मुक्तावन।
दीनबंधु, असरन के सरन, सुखनि जसुमति के कारन देह धरावन।
हित कै चित की मानत सबके जिय की जानत सूरदास मन भावन।।251।।