(अलि हौ) कैसै कहौ हरि के रूप रसहिं।
अपने तन मैं भेद बहुत विधि, रसना जानै न नैन दसहि।।
जिन देखे ते आहिं बचन बिनु, जिनहिं बचन दरसन न तिसहिं।
बिनु बानी ये उमँगि प्रेम जल, सुमिरि सुमिरि वा रूप जसहि।।
बारबार पछितात यहै कहि, कहा करौ जो बिधि न बसहिं।।
‘सूर’ सकल अंगनि की यह गति, क्यौ समुझावै छपद पसुहिं।।3534।।