अब हरि औरै ही रँग राँचे।
तुम अलि सखा स्याम सुदर के, मतौ सयानप कांचे।।
वालापन तै सग रहत हौ, सुन्यौ न एक पषानौ।
जैसे वास बसत है कोऊ, तैसी होत सयानौ।।
अरु अपने मुख तुम जु कहत हौ, प्रभु सबही भरि पूरि।
आवागमन करत हौ कापै, को लागत को दूरि।।
जे उपमा पटतर लै दीजै, ते सब उनहि न लायक।
जौ पै अलख रह्यौ चाहत, तौ वादि भए ब्रजनायक।।
अरु जे वुद्धि सिखावहु हमकौ, ते सब हमहिं अलेखै।
‘सूर’ सुमनसा तब सुख मानै, कमलनयन मुख देखै।।4027।।