अब यों ही लागे दिन जान।
सुमिरत प्रीति लाज लागति है, उर भयौ कुलिस समान।।
लोचन रहत बदन बिनु देखे, बचन सुने बिन कान।
हृदय रहत हरि पानि परस बिनु, छिदत न मनसिज बान।।
मानौ सखी रहे नहिं मेरे, वै पहिले तन प्रान।
बिधि समेत रचि चले नदसुत, बिरह विथा दै आन।।
विधि बछ हरे और पुनि कीने बसेइ वेत विषान।
'सूरदास' ऐसीयै कछु यह, समुझति है अनुमान।। 3214।।