अब मोहि मज्‍जत क्‍यौं न उबारौ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग धनाश्री



अब मोहि मज्‍जत क्‍यौं न उबारौ ?
दीनदंधु, करुनानिधि स्‍वामी, जन के दुख निवरौ।
ममता-घटा, मोह की बूँदैं, सरिता मैन अपारौ।
बूढ़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरुजन-ओट-अधारौ।
गरजत क्रोध-लौभ कौ नारौ, सूझत कहुँ न उतारौ।
तृष्‍ना-तड़ित च‍मकि छनहीं छन, अह-निसि यह तन जारौ।
यह भव-जल कलिमलमहिं गहे है, बोरत सहस प्रकारौ।
सूरदास पतितनि के संगी, बिरदहिं नाथ, सम्‍हारी।।209।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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