अब नाँ रहूँगी श्याम अटकी, म्हारो मन लाग्यो गिरधर से (टेर)
म्हाँने गुर मिलिया अविनासी, दई ग्यान की गुटकी।
लगी चोट निज नाँव धणी की, म्हारै हिवड़ै खटकी।।1।।
माणक मोती परत न पहुरूँ, मैं तो कबकी नटगी।
गहणों म्हारे माला दोवडो, और चँनण की कुटकी।।2।।
राणा कुलकी लाज गमाई, साधाँ के संग भटकी।
नित प्रत जाऊँ गुर दरसण, नाचूँ दै दै चुटकी।।3।।
परमगुरु के सरणै जाऊँ, करूँ प्रणाम सिर लटकी
जेठ बहू की काण न मानूँ, पड़ो घूँघट पर पटकी।।4।।
करम लिखायो साध सँगत में, हर-सागर में लटकी।
मीराँ के प्रभु गिरधरनागर, भो-सागर से छटकी।।5।।[1]
राग - काफी : ताल - जैत
(प्रेम-दृढ़ता)