अब धौं कहो, कौन दर आउँ ?
तुम जगपाल, चतुर चिंतामनि, दीनबंधु सुनि नाउँ।
माया कपट-जुवा, कौरव-सुत, लोभ, मोह, मद भारौ।
परबस परौ सुनौ करुनामय, मम मति-तिय अब हारी।
क्रोध-दुसासन गहे लाज-पट, सर्व अंध-गति मेरी।
सुर, नर, मुनि, कोउ निकट न आवत, सूर समुझि हरि-चेरी।।165।।