अब कित जाऊँ जी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

वंदना एवं प्रार्थना

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राग पहाड़ी - ताल कहरवा

मारवाड़ी बोली

अब कित जाऊँ जी! हार कर सरणै थाँरे आयो॥
जब तक धनकी धूम रही घर भायाँ सेती छायो।
साला-साढ़ू भोत नीसर्‌या, नेड़ो‌इ साख बतायो॥
अणगिणतीका बण्या भायला, प्रेम घणो दरसायो।
एक एकसें बढक़र बोल्यो, एकहिं जीव बतायो॥
सभा-समाज, पंच-पंचायत, ऊँचो भोत बिठायो।
वाह-वाहकी धूम मचा‌ई स्याणो घणो बतायो॥
घरका सभी, साख सबहीसूँ, सबहीकै मन भायो।
बाताँ सेती सभी पसीनै ऊपर खून बुहायो॥
लक्ष्मी माता करी कृपा जद, चंचल रूप दिखायो।
माया ल‌ई समेट, भरमको पड़दो दूर हटायो॥
मात-पितानै खारो लाग्यो, भायाँ मान घटायो।
साला-साढ़ू सभी बीछड्या, को‌इ न नेड़ो आयो॥
‘एक जीवका’ भोत भायला, एक न आडो आयो।
उलटी हँसी उड़ा‌ई जग मैं, बेवकूफ बतलायो॥
टूट्यो प्रेम, छुट्यो सँग सबसूँ सब को‌ई छिटकायो।
नाक चढ़ाकर मुँहसूँ बोल्या, सब जग हुयो परायो॥
सुखको रूप समझकर जगने, भोत दिनाँ भरमायो।
खुल ग‌ई पोल, रूप सगलाँ असको ली चौड़ै आयो॥
मिटी भरमना सारी, थाँरै चरणाँ चित्त लगायो।
नाथ! अनाथ पतित पापीने तुरत सनाथ बणायो॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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