अब कहों ध्रंव बर देनऽवतार 2 -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल



मेरै सँग राजा पै आउँ। द्याऊँ तोहिं राज-धन-गाउँ।
भक्ति-भाव को जो तोहिं चाह। तोसौं नहिं ह्वैहै निर्वाह।
बहुतक तपसी पचि-पचि मुए। पै तिन हरि-दरसन नहिं हुए।
मैं हरि-भक्त, नाम मम नारद। मोसौं कहि तू अपनी हारद।
राजा पास कहौं जो जाइ। लैहै मानि नृपति संत-भाइ।
ध्रुव विचार तब मन मैं कियौ। सुमिरत नारद दरसन-दियौ।
जब मैं भक्ति स्याम की कैहौं। जानत नहीं कहा मैं पैहौं।
कह्यौ नारद सौं करौ सहाइ। करौं भक्ति हरि की चित लाइ।
तुम नारायन-भक्त कहावत। केहि कारन हमकौं भरमावत?
तब नारद ध्रुव कौं दृढ़ देखि। कहौ, देउँ मैं ज्ञान बिसेषि।
मथुरा जाइ सु सुमिरन करौ। हरि कौ ध्यान हृदय मैं धरौ।
द्वादस अच्छर मंत्र सुनायौ। और चतुर्भुज रूप बतायौ।
मथुरा जाइ सोइ उन कियौ। तब नारायन दरसन दियौ।
ध्रुव,अस्तुति कीन्ही बहु भाइ। तब हरिजू बोले मुसुकाइ।
ध्रुव,जो तेरी इच्छा होइ। माँगि लेहि अब मोतैं सोइ।
प्रभु,मैं तुम्हरो दरसन लह्यौ। माँगन कौं पाछैं कहा रह्यौ?
हरि कह्यौ,राज-हेत तप कियौ। ध्रुव प्रसन्न ह्नै मैं तोहिं दिया।
अरु तेरैं हित कियौ अस्थान। देहि प्रदच्छिन जहँ ससि-भान।
ग्रह-नछत्रहू सबही फिरैं। तू भयौ अटल,न कबहूँ टरै।
अरु पुनि महा-प्रलय जब होइ। मुक्तिस्थान पाइहै सोइ।
यह कहि हरि निज लोक सिधारे। ध्रुव निज पुर कौं पुनि पग धारे।
जब ध्रुव पुर कैं बाहर आयौ। लोगनि नृप कौं जाइ सुनायौ।
उनके कहैं न मन मैं आई। तब नारद कह्यौ नृप सौं जाई

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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