अब कहों ध्रंव बर देनऽवतार -सूरदास

सूरसागर

चतुर्थ स्कन्ध

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राग बिलावल



हरि हरि, हरि हरि, सुमिरन करौ।हरि चरनारबिंद उर धरौ।
अब कहों ध्रंव बर देनऽवतार। राजा सुनौ ताहि चित धार।
उत्त निपाद पृथ्वोपति भयौ। ताकौ जस तीनो पुर छयौ।
नाम सुनीति बड़ी तिहिं दार। सुरुचि दूसरी ताकी नार।
भयौ सुरुचि तैं उत्तम क्वार। अरु सुनीति कैं ध्रुव सुकुमार।
राजा हियैं सुरुचि सौं नेह। बसै सुनीति दूसरैं नेह।
इक दिन नृपति सुरुचि गृह आयौ। उत्तम कुँवर गोद बैठायौ।
ध्रुव खेलत खेलत तहँ आए। गौद बैठिवे कों पुनि घाए।
राजा तिय डर गोद न लयौ। ध्रुव सुकुमार रोइ तव दयौ।
तबहिं सुरुचि ध्रुव कौं समुझायौं। गौविंद चरन नहिं ध्यायौ।
जो हरि कौ सुमिरन तू करतौ। मेरै गर्भ आनि अवतरतौ।
राजा तोकौं लेतौ गोद। तबहिं गोद मैं करतौ मोद।
अजहूँ तू हरि पद चित लाइ। होहिं प्रसन्न तोहिं जदुराइ।
सुरुचि के बचन बान सम लागे। ध्रुव आए माता पै भागै।
माता ताकौं रोवत देखि। दूख पायौ मन माहिं बिसेषि।
कह्यौ पुत्र, तोकौं किन मारयौ। ध्रुव अति दुःखित बचन उचारयौ।
माता ताकौं कंठ लगायौ। तब ध्रुव सब वृत्तातं सुनायौ।
कह्यौ सुत, सुरुचि सत्य यह कह्यौ। बिनु हरि-भक्ति पुत्र मम भयौ।
अजहूँ जौ हरिपद चित लैहौ। सकल मनोरथ मन के पैहौ।
जिन-जिन हरि चरननि चित लायौ। तिन-तिन सकल मनोरथ पायौ।
प्रपिता तब ब्रह्मा तप कियौ। हरि प्रसन्न ह्नै तिहिं बर दियौ।
तिन किन्हौ सब जग विस्तार। जाकौ नाहीं पारावार।
बहुरि स्वंयभू मनु तप कीन्हौ। ताहू कौं हरि जू बर दीन्हौ।
तैं हूँ जो हरि-हित तप करिहै। सकल मनोरथ तेरो पुरिहै।
ध्रुव यह सुनि बन कौं उठि चलै। पंथ माहिं तिन नारद मिले।
देख्यो पाँच वरष को बाल। सुरुचि वचन नहिं सक्यौ सँभार।
अब मैं हूँ याकौ दृढ़ देखौं। लखि बिस्वास, बहुरि उपदेसौं।
ध्रुव सौं कह्मौ क्रौध परिहरौ। मैं जो कहौं सो चित मैं धरौं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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