अपुनपौ, आपुन ही बिसरयौ।
जैसैं स्वान काँच-मंदिर मैं, भ्रमि-भ्रमि भूकि परयौ।
ज्यौं सोरभ मृग-नाभि बसत है, द्रुम-तृन सूंघि फिरयौ।
ज्यौं सपने मैं रंक भूप भयौ, तसकर अरि पकरयौ।
ज्यौं केहरि प्रतिबिब देखि कै, आपु न कूप परयौ।
जैसैं गज लखि फटिकसिला मैं, दसननि जाइ अरयौ।
मर्कट मूंठि छाँडि़ नहिं दीनी, घर-घर-द्वार फिरयौ।
सूरदास नलिनी की सुवटा, कहि कौनै पकरयौ।।26।।
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