अपनैं अपनैं टोल कहत ब्रजवासियां 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग गौरी


जैसे हैं गिरिराज जू, तैसौ अन्न कौ कोट।
मगन भए पूजा करैं, नर-नारी बड़-छोट।।
सहस भुजा गिरि धरे, करै भोजन अधिकाइ।
नख सिख इक अनुहारिं, मनौ दूसरौ कन्हाई।।
राधा सौं ललिता कहै, चलहु देखियै जाइ।
गहे अँगुलियां नंद की ढोटा भोजन खाइ।।
पीत दुमालौ बन्यौ, कंठ मोतिनि की माला।
भूषन भुजा अनूप, भलमलत नैन विसाला।।
स्याम की शोभा गिरि भयौ, गिरी की शोभा स्थाम।
जैसे परवत भात कौ, टिग भैया बलराम।।
जैसी कनक पुरी जु, दिव्यै रतननि सौं छाई।
बलि दीन्ही परभात, छाँह पूरव चलि आई।।
चहूँ ओर चक्रा धरै, चंदहि पटतर सोइ।
ठौर ठौर वेदी रची, बहु विधि पूजा होई।।
जहाँ-तहाँ दधि धरयौ, कहौ कह उज्ज्वलताई।
उदधि सिखर ह्वै रह्यौ भातमय देइ छपाई।।
बदरौला वृषभानु कैं, रही बिलोवनहारि।
ताकी बलि वह देवता, लीन्ही भुजा पसारि।।
लै सब भोजन अरषि, गोप-गोपिनि कर जोरे।
अगिनिति कीन्हे खाद, दास बरने कछु थोरे।।
इहि विधि पूजा पूजि कै गोबिंद के गुन गाइ।
सूरदास सब सौं कही, लीला प्रगट सुनाइ ।।841।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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