अपनैं अपनैं टोल कहत ब्रजवासियां 1 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

Prev.png
राग गौरी


तुम देखत बलि खाइगौ, मुँह माँगे फल देइ।
गोप कुसल जौ चाहियै; गिरि गोबर्धन सेइ।।
गोपनि कियो बिचार, संकट सबहिनि मिलि साजे।
बहु विधि लै पकवान, चले संग बाजत बाजे।।
इक तौ बन हीं बन चले, एक जमुन-तट भीर।
एक न पैंड़ौ पावहीं, उमड़े फिरत अहीर।।
इक घर तैं उठि चले, एक घर कौं फिरि जाहीं।
गावत गुन गोपाल, ग्वाल उमँगे न समाहीं।।
गोपनि कौ सागर भयौ, गिरि भयौ मंदर चारु।
रत्न भई सब गोपिका, कान्ह बिलोवनहारु।।
ब्रज चौरासी कोस, फेर गोपनि जे डेरा।
लांबे चउवन कोस, आजु व्रजबासि बसेरा।।
सबहिनि कैं मन साँवरौ, दीसै सबनि मँझारि।
कौतुक देखन देवता, आए लोक बिसारि।।
लीन्हे बिप्र बुलाइ जग्य आरंभन कीन्हौ।
सुरपति-पूजा मेटि, भोग गोवर्धन दीन्हौ।।
दिवस दिवारी प्रातहीं, सब मिलि पूजे जाइ।
आनँद प्रीति जू मानहीं, सब देखत बलि खाइ।।
प्रथम दूध अन्हाइ, बहुरि गंगाजल डारयौ।
बड़ौ देवता जानि, कान्ह कौ मतौ बिचारयौ।।

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः