अधर-रस मुरली लूट करावति।
आपुन बार-बार लै अँचवति जहाँ-तहाँ ढरकावति।
आजु महा चढ़ि बाजी वाकी, जोइ जोइ करै बिराजै।
कर-सिंहासन बैठि, अधर-सिरछत्र घरे वह गाजै।।
गनति नहीं अपनैं बल काहुहिं, स्यामहि ढीठि कराई।।
सुनहु सूर बन कह बसबासिनि, ब्रज मैं भई रजाई।।1308।।