अदभुत इक चितयौ हौं सजनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग आसावरी



अदभुत इक चितयौ हौं सजनी, नंद महर कै आँगन री।
सो मैं निरखि अपुनपौ खोयौ, गई मथानी माँगन री।
बाल-दसा मुख-कमल बिलोकत, कछु जननी सौं बोलै री।
प्रगटति हँसत दँतुलि, मनु सोपज दमकि दुरे ओलै री।
सुंदर भाल-तिलक गोरोचन, मिलि मसि-बिंदुका लाग्यौ री।
मनु मकरंद अचै रुचि कै, अलि-सावक सोइ न जाग्यौ री।
कुंडल लोल कपोलनि झलकत, मनु दरपन मैं झाई री।
रही बिलोकि बिचारि चारु छबि, परमिति कहूँ पाई री।
मंजुल तारनि को चपलाई, चित चतुराई करषै री।
मनौ सरासन धरे कर स्मर, भौंह चढै़ सर बरषै री।
जलधि थकित जनु काग पोत कौ कूल न कबहुँ आयौ री।
ना जानौं किहि अंग मगन मन, चाहि री नहिं पायौ री।
कहँ लगि कहौं बनाइ बरनि छबि, निरखत मति-गति हारी री।
सूर स्याम के एक रोम पर देउँ प्रान बलिहारी री।।137।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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