अति एकान्त, बिकल बैठी थी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


अति एकान्त, बिकल बैठी थी आतुर मन कालिन्दी-कूल।
श्याम-विरह दुस्सह पीड़ासे व्यथित गयी थी सब कुछ भूल॥
’आवेंगे अब नहीं कभी, वे छोड़ गये मुझको मतिमान।
जान गये मुझको सब विधिसे हीन, मलीन, दोषकी खान॥
नहीं बाह्य सौन्दर्य तनिक भी, नहीं हृदय सुन्दरता-लेश।
अमित दोष-पूरित बाह्यान्तर, कलुषित कठिन कुबुद्धि विशेष॥
इसी हेतु वे गये, किया प्रियतमने समुचित निस्संदेह।
नहीं कदापि योग्य है उनके कुत्सित अति कुरूप यह देह॥
सुख पायें वे प्राणनाथ, है अमित मुझे इसमें आनन्द।
प्रिय-वियोग-विष-ज्वाला विषम जलाती रहे मुझे स्वच्छन्द’॥
करती यों विचार थी, थी वह भाव-मुग्ध सब विधि बाला॥
मन-ही-मन जप रही निरन्तर थी वह प्रिय-सुखकी माला॥
प्रिय-सुख-स्मृतिसे एक-‌एक पल, नव-नव हृदय मोद भरता।
किंतु साथ ही प्रिय-वियोग-दावानल हृदय दाह करता
भूल गयी वह कल-कल करती बहती कालिन्दी-धारा।
कूद पड़ी, कमनीय कलेवर सलिल-निमग्र हु‌आ सारा॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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