अँचवत अति आदर लोचनपथ मन छन तृपति न पावै।
हरि जू के तन की सोभा, कछु कहत नहीं कहि आवै।।
सजल मेघ घन स्याम सुंदर बपु, तडित बसन, बनमाल।
सिखर सिखंडी, धातु बिराजत, सुतन, सुरंग प्रबाल।।
कुंडल करन कपोलनि की छवि, बने कमल दल नैन।
अधर मधुर मुसुक्यानि मनोहर, करत मधुर मुख बैन।।
कछुक कुटिल, कमनीय सुभग सिर, गोरज मंडित केस।
राजत मनु अंबुज-पराग-रस रीझत मधुप सुदेस।।
प्रति प्रति अंग अनंग-कोटि-छवि सुनि सखि चित्त रही न।
'सूरदास' जहँ दृष्टि परति है नैन रहत ह्वै लीन।। 36 ।।