अँखियाँ हरि दरसन की भूखी।
कैसै रहतिं रूपरस राँची, ये बतियाँ सुनि रूखी।।
अवधि गिनत, इकटक मग जोवत, तब इतनौंं नहिं झूखी।
अब यह जोग सँदेसौ सुनि सुनि अति अकुलानी दूखी।।
बारक वह मुख आनि दिखावहु, दुहि पय पिवत पतूखी।
‘सूर’ सु कत हठि नाव चलावत, ये सरिता है सूखी।।3557।।