विरह-पदावली -सूरदास
(288) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मैंने तो समझा था कि माधव ने (मुझसे) प्रेम किया था, जब उन्होंने भ्रमर की भाँति मिलकर अत्यन्त आदरपूर्वक उत्सुकता (आतुरता) के साथ (मेरे) मुख का मकरन्द पान किया था। इससे तो वह पूतना अच्छी थी, जिसका दूध पीने के साथ (उन्होंने) प्राण ले लिये; (किंतु हमारी तो ऐसी दशा बना दी) मानो (भ्रमर ने पुष्प का सारा) मधु पी लिया और सर्वथा शून्य देह करके छोड़ दिया हो, यह दुःख ऊपर से उन्होंने दे दिया। (श्यामसुन्दर अपने जाते समय) हमें अचेत (मूर्च्छित) होते देखकर अपनी अमृतभरी दृष्टि से हमारे हृदय को सिक्त करके चले गये। प्रभु! उसी आधार पर अब तक (हमको) जीना पड़ रहा है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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