श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
हित-युगल
उज्जवल- रस की उपासना के लिये युगल का होना आवश्यक है। भरत ने प्रमदा युक्त पुरुष को ही श्रृंगार कहा है- ‘पुरुष:प्रमदा-युक्त: श्रृंगार इति संज्ञित: श्रृगांर रस की उपासना अपने देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। पुराणों में तथा अन्यत्र दृष्टि में इसकी प्राचीनता सिद्ध हो चुकी है। सोलहवीं शती में उत्पन्न होने वाले आचार्यों और महात्माओं ने इसको बहुत पल्लिवत किया और उसी समय इस उपासना की परिपाटियाँ बनीं। सभी रस-उपासकों के उपास्य राधाकृष्णात्मक युगल हैं, किन्तु राधाकृष्ण के स्वरूप और परस्पर संबध को लेकर इन लोगों में काफी मतभेद है। यह मतभेद मूलत: प्रत्येक आचार्य की भिन्न प्रेम-रस संबधिनी दृष्टि के ऊपर आधारित है। राधावल्लभीय प्रेम-सिद्धान्त में युगल की स्थिति का संक्षिप्त परिचय पीछे दिया जा चुका है। वे प्रेम के दो खिलौने हैं जो प्रेम का ही खेल खेल रहे हैं- ‘प्रेम के खिलौना दोऊ खेलत हैं प्रेम खेल’। परात्पर ‘हित’ और प्रेम और सौन्दर्य दो रूपों में नित्य व्यक्त रहकर अनाद्यनंत प्रेम-क्रीडा में प्रवृत्त है। प्रेम और रूप ही हित के सहज युगल हैं। इन दोनों में भोक्ता-भोग्य का संबंध है, प्रेम भोक्ता है और रूप भोग्य। प्रेम की मूर्ति श्याम सुन्दर हैं और सौन्दर्य की श्री राधा। जिस प्रकार प्रेम और सौन्दर्य अपनी उज्वलतम परिणति में एक-दूसरे से पृथक् नहीं किये जा सकते, उसी प्रकार राधा-श्याम सुंदर को परस्पर एक क्षण का वियोग भी असह्य है। प्रेम सदैव प्रेम-तृषा से पूर्ण होता है। प्रेम को प्रेम की प्यास सदैव लगी होती है। श्याम-श्यामा में प्रेम की स्थिति समान है, अत: इनकी प्रेम-तृषा भी समान है। ‘यह दोनों परस्पर अंशों पर भुजा रखे हुए एक-दूसरे के मुख- चन्द्र को देखते रहते हैं और इनके नेत्र वृषित चकोरों की भाँति मत्त बनकर रस-पान करते रहते हैं।’ अंसनि पर भुज दिये विलोकत इंदु-वदन विवि ओर। इसका अर्थ यह हुआ कि यह दोनों ही चन्द्र हैं और दोनों तृषित चकोर हैं। दोनों ओर चन्द्र ही चकोर बन कर चन्द्र का रसपान कर रहा है। जल ही प्यास बनकर जल को पी रहा है। प्यासे पानी की प्यास को बुझाने का कोई उपाय नहीं रह जाता। पानी को यदि प्यास लग आवे तो निकट-स्थित कुए से भी क्या लाभ ? ‘पानी लागै प्यास जो कहा करैं ढिंग कूप ?’ प्रेम की तृषा रूप-जल से सिंचित होकर शान्त होती है, किन्तु यदि रूप-दर्शन से वह बढ़ने लगे, तो उसकी निवृत्ति का कोई साधन नहीं रहता। राधा-श्याम-सुन्दर की प्रेमतृषा परस्पर रूप-दर्शन से अनंत और नित्य वर्धमान बनी हुई है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हि. च.
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