हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 78

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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प्रेम और रूप


प्रेम के समान रूप-सौन्‍दर्य-भी अनिर्देश्‍य तत्‍व है। भारतीय-साहित्‍य में सौन्‍दर्य संबंधी अधिक ऊहापोह नहीं मिलती। इसका कारण शायद यह हो कि यहाँ सौन्‍दर्य ‘रस’ का अंग माना जाता है और भारतीय विचारकों ने ‘रस के संबंध में विस्‍तृत विचार करने के बाद, सौन्‍दर्य पर विचार करना अनावश्‍यक समझा है। सौन्‍दर्य की यह प्राचीन परिभाषा प्रसिद्ध है, ‘क्षणे-क्षणे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयताया:’ क्षण-क्षण में जो नवत्‍व धारण करता है वही रमणीय है। इसके अतिरिक्‍त श्री रूप गोस्‍वामी ने अपने ‘भक्ति रसामृत सिन्‍धु[1] में कहा है-‘भवेत्‍सौन्‍दर्य-मंडानां सन्निवेशो यथोचितम्’ अर्थात् अंगों का यथोचित सन्निवेश ही सौन्‍दर्य है।

इन दोनों उक्तियों में सौन्‍दर्य के केवल एक-एक अंग का ही परिचय मिलता है, अत: संपूर्ण सौन्‍दर्य-तत्‍व को समझने में यह अधिक सहायक नहीं होती है।

पाश्‍चात्‍य मनीषियों ने सौन्‍दर्य पर विस्‍तृत विचार किया है, किन्‍तु वे भी सौन्‍दर्य की पूरी परिभाषा देने में असमर्थ रहे हैं। वहाँ जिन विद्वानों ने वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सौन्‍दर्य पर विचार किया है, उनमे से कुछ उसको वस्‍तुगत मानते हैं और कुछ ने सौन्‍दर्य-बोध को अंत:करण का एक धर्म माना है। आध्‍यात्मिक दृष्टिकोण वाले विद्वानों ने सौन्‍दर्य को न तो द्दश्‍य-गत माना है और न द्रष्‍टा के अन्‍त:करण-गत। वे सौन्‍दर्य को कोई अतीन्द्रिय वस्‍तु मानते हैं जो सुन्‍दर कहे जाने वाले पदार्थो में प्रतिभासित होती है। इस वस्‍तु के कारण ही भौतिक द्दश्‍य सुन्‍दर दिखाई देते हैं। यह अ‍तीन्द्रिय वस्‍तु क्‍या है ? इसका उत्‍तर हर विचारक भिन्‍न देता है।

आध्‍यात्मिक विचारकों में से अनेक भगवान् और सौन्‍दर्य को अभिन्न मानते हैं और सुन्‍दर वस्‍तु-समूह में भगवान के सौन्‍दर्य को ही प्रतिभासित बतलाते हैं। किन्‍तु सौन्‍दर्य और भगवान को एक बतला देने से सौन्‍दर्य-संबंधी जिस जिज्ञासा पूर्णतया शांत नहीं होती। प्रश्‍न यह उठता है कि यदि भगवान ही संपूर्ण सौन्‍दर्य के अधिष्‍ठान हैं और सुन्‍दर दिखलाई देने वाली वस्‍तुएँ उन ही की सौन्‍दर्य-रश्मि से आलोकित हैं, तो फिर सौन्‍दर्य की प्रतीति सब लोगों को समान क्‍यों नहीं होती ? सौन्‍दर्य के दर्शन से जहाँ एक व्‍यक्ति आनंद-विभोर बन जाता है, वहाँ दूसरे के चित्त में मामूली-सी विक्रिया होती है। इससे सिद्ध होता है कि सौन्‍दर्य की प्रतीति बहुत अंशो में द्रष्‍टा के अंत:करण पर आधारित है। वैज्ञानिकों की भाँति सौन्‍दर्य द्रष्‍टा के अंतकरण का धर्म-विशेष तो नहीं माना जा सकता, क्‍योंकि वह अनेक अंशों में द्दश्‍य के गठन-प्रकार पर अबलंवित रहता है। सुन्‍दर वस्‍तु का गठन विशेष प्रकार से होता है। जिन वस्‍तुओं को हम सुन्‍दर कहते हैं उनमें एकत्‍व, सामंजस्य, अनुपात, शुद्धता, आरोह-अवरोह ( रिथ्‍म ) सुचारु-विन्‍यास आदि कुछ बाह्य गुण दिखाई पड़ते हैं। अत: सौन्‍दर्य की परिभाषा ऐसी होनी चाहिये जिसमें द्रष्‍टा, द्दश्‍य और ‘अतीन्द्रिय-वस्‍तु‘ तीनों को उचित स्‍थान मिल सके।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दक्षिण विभाग प्रथम लहरी

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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