श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
द्विदल-सिद्धान्त
सारस के वचनों को सुनकर वियोग-रस में निमग्न रहने वाली चकई को उसके ऊपर तरस आता है और वह कहती है, ‘हे सारस, अपनी प्रिया के वियोग को यदि एक क्षण के लिये भी तेरा शरीर सहन कर सकता और तेरे वियोग में यदि तेरी त्रिया को कामाग्नि-पान करना पड़ता तब तू हमारी पीर को समझ सकता था। यदि वैसी स्थिति में तू अपने शरीर को वज्र का बनाकर धैर्य धारण कर सकता तब तेरी बात थी। तुम तो वियुक्त होने पर फौरन मर जाते हो; तुम्हारा मन वियोग के प्रभाव का अनुभव हो नहीं कर पाता।’ श्रीहित हरिवंश कहते हैं- विरह के बिना श्रृंगार रस की स्थिति शोचनीय है, सदैव प्रिय के पास रहने वाला सारस प्रेम के मर्म को क्या जान सकता है?[3] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ पत्ता
- ↑
चकई प्राण जु घट रहैं पिय बिछुरन्त निकज्ज।
सर अन्तर अरु काल निसि तरफ तेज, धन गज्ज।।
तरफ तेज घन गज्ज लज्ज तुहि बदन न आवै।
जल विहूनि करि नैंन मोर किहिं भाय बतावै।।
हित हरिवंश विचारि बाद अस कौन जु बकई।।
सारस मन संदेह प्राण घट जु रहें चकई।। - ↑
सारस सर बिछुरन्त कौं जो पल सहै शरीर।
अगनि-अनंग जु तिय भखै तौ जानैं परपीर।।
तौ जानै परपीर धीर धरि सकै वज्र तन।
मरत सारसहिं फूटि पुनि नपर चौ जुलहत मन।।
हित हरिवंश विचारि प्रेम-विरहा विन वारस।
निकट कंत नित रहत मरम कहा जानै सारस।।
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