हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 58

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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द्विदल-सिद्धान्‍त


काव्‍य शास्‍त्र में श्रृंगार-रस के दो भेद माने गये हैं- संभोग श्रृंगार, विप्रलाभ श्रृंगार। प्रेमोपासकों ने भी श्रृंगार-तरु को द्विदल माना है। उसका एक दल[1] संयोग है और दूसरा वियोग। श्रृंगार रस के दो भेद, पक्ष किंवा दल सबको स्‍वीकार हैं किन्‍तु इन दोनों दलों के स्‍वरूप, प्रभाव एवं पारस्‍परिक-सम्‍बन्‍ध के विषय में पर्याप्‍त मतभेद हैं। कुछ लोग श्रृंगार रस की पुष्टि संयोग में मानते हैं और कुछ वियोग में। वे दोनों यह भूल जाते हैं कि संयोग और वियोग में कोई एक यदि अपने आप में पूर्ण होता तो श्रृंगार को द्विदल होने की आवश्‍यकता न थी; उसकी पूर्ण अभिव्‍यक्ति किसी एक के द्वारा हो जाती। श्रृंगार ने दो पत्‍ते धारण किये हैं, इसका अर्थ ही यह है कि उसके पूर्ण स्‍वरूप की अभिव्‍यक्ति इन दोनों के द्वारा होती है, एक के द्वारा नहीं। यह दोनों मिल कर ही सम्‍पूर्ण प्रेम को प्रकाशित करते हैं। श्री हिताचार्य ने चकई और सारस के दृष्‍टान्‍त से संयोग और वियोग की अपूर्णता को प्रगट किया है। प्रकृति में सारस नित्‍य-संयोग का प्रतीक है और चकई वियोग का। सारस वियुक्‍त होने पर जीवित नहीं रहता है और चकई प्रति-रात्रि वियोगज्‍वाला का पान करती रहती है। चकई की यह स्थिति देखकर सारस के मन में प्रसके प्रेम के प्रति सन्‍देह होता है और उससे कहता है ‘प्रियतम से वियुक्‍त होने पर तेरे प्राण तेरे शरीर में बेकार रहे आते है; और वह ऐसी स्थिति में, जब तुम दोनों के बीच में सरोवर का अन्‍तर, अन्‍धकार-पूर्ण रात्रि, बिजली की चमक और धन की गर्जना रहती है ! समझ में नही आता कि यह सब सहन कर लेने के बाद प्रात: काल तू प्रेम-जल -विहीन नेत्रों को लेकर कैसे अपने प्रियतम के प्रति प्रेम का प्रदर्शन करती हैं! श्रीहित हरिवंश कहते हैं ‘बुद्धिमानों, को सारस के उपरोक्‍त वचनों पर विचार करना चाहिये। अधिक कहने से तो क्‍या लाभ है, सारस के मन में यह सन्‍देह है कि परम दुखदायी वियोग की स्थिति में चकई के शरीर में प्राण कैसे रहे आते हैं।

[2]

सारस के वचनों को सुनकर वियोग-रस में निमग्‍न रहने वाली चकई को उसके ऊपर तरस आता है और वह कहती है, ‘हे सारस, अपनी प्रिया के वियोग को यदि एक क्षण के लिये भी तेरा शरीर सहन कर सकता और तेरे वियोग में यदि तेरी त्रिया को कामाग्नि-पान करना पड़ता तब तू हमारी पीर को समझ सकता था। यदि वैसी स्थिति में तू अपने शरीर को वज्र का बनाकर धैर्य धारण कर सकता तब तेरी बात थी। तुम तो वियुक्‍त होने पर फौरन मर जाते हो; तुम्‍हारा मन वियोग के प्रभाव का अनुभव हो नहीं कर पाता।’ श्रीहित हरिवंश कहते हैं- विरह के बिना श्रृंगार रस की स्थिति शोचनीय है, सदैव प्रिय के पास रहने वाला सारस प्रेम के मर्म को क्‍या जान सकता है?[3]

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पत्ता
  2. चकई प्राण जु घट रहैं पिय बिछुरन्‍त निकज्‍ज।
    सर अन्‍तर अरु काल निसि तरफ तेज, धन गज्‍ज।।
    तरफ तेज घन गज्‍ज लज्‍ज तुहि बदन न आवै।
    जल विहूनि करि नैंन मोर किहिं भाय बतावै।।
    हित हरिवंश विचारि बाद अस कौन जु बकई।।
    सारस मन संदेह प्राण घट जु रहें चकई।।

  3. सारस सर बिछुरन्‍त कौं जो पल सहै शरीर।
    अगनि-अनंग जु तिय भखै तौ जानैं परपीर।।
    तौ जानै परपीर धीर धरि सकै वज्र तन।
    मरत सारसहिं फूटि पुनि नपर चौ जुलहत मन।।
    हित हरिवंश विचारि प्रेम-विरहा विन वारस।
    निकट कंत नित रहत मरम कहा जानै सारस।।

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विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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