हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 207

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य


हिन्दी के क्षेत्र में भक्ति-साहित्य का उदय एक विशेष घटना है। इसकी विशेषता यह है कि यह अचानक -सी घटित हो गई है। भक्ति-साहित्य से पूर्ववर्ती हिन्दी साहित्य में इस घटना के कोई स्पष्ट आसार नहीं दिखलाई देते। जहाँ-तहाँ जो सूत्र मिलते हैं वे भारतीय संस्कृति की अविच्छिन्नता भर को प्रमाणित करते हैं, उनके भक्ति-साहित्य की विशेषताओं पर अधिक प्रकाश नहीं पड़ता। यह साहित्य उस महान भक्ति-आन्दोलन से संबद्ध है जो पन्द्रहवीं शताब्दी में हिन्दी भाषी प्रदेश में चल पड़ा था। यह दक्षिण से आया था। पद्मपुराण के भागवत-माहात्म्य में स्वयं भक्ति ने कहा है ‘मेरा जन्म द्रविड़ में और वर्धन कर्णाटक में हुआ है’- उत्पन्नता द्रविड़े साहं वृद्धिं कर्णाटके गता। कबीरदास ने बतलाया है कि भक्ति द्राविड़ मे उत्पन्न हुई थी और रामानंद उसको उत्तर भारत में लाये थे- भक्ति द्राविड़ ऊपजी लाये रामानंद। उत्तर भारत में आने से पूर्व यह दक्षिण में खूब फल-फूल चुकी थी और वहाँ की लोक भाषा में एक ऐसे साहित्य की प्रेरक बन चुकी थी जो अपनी रहस्योन्मुख प्रवृत्ति और भाव प्रवणता में अनूठा है। तामिल भाषा में आलवार भक्तों की रचनाओं को वही स्थान प्राप्त हे जो हिन्दी में कबीर, तुलसीदास और सूरदास के पदों को।

भक्ति में साहित्य की प्रयोजक बनने की शक्ति सहज रूप से विद्यमान है। वह एक मधुर और तीव्र अनुभूति है जो मानस में हलचल मचाकर मनुष्य को मुखरित कर देती है। साहित्य सर्जन के पीछे मनुष्य की वे विरल तीव्र अनुभूतियाँ ही हैं जो अपने साथ गान की विवशता लिये होती हैं। इन अनुभूतियों के विवश गायक को ही कवि कहा जाता है। चित्त में अनुभूतियों के द्वारा उठाई गई हलचल ‘भाव’ कहलाती है और भाव की चर्वणा ही, भारतीय साहित्य शास्त्र की दृष्टि में, साहित्य का एकान्त प्रयोजन है। सम्वेदन शील भक्तों के द्वारा भक्ति-भाव की चर्वणा ही भक्ति-साहित्य के रूप में उपलब्ध है। भारतवर्ष में ही नहीं, संसार में जहाँ कहीं भी भक्ति-भाव की निविड़ चर्वणा हुई है, उच्च साहित्य की सृष्टि हो गई है।

इसके साथ भक्ति का एक यह भी स्वभाव है कि वह भक्ति की वैयक्तिक विशेषताओं, उसकी शिक्षा, संस्कार और परिस्थिति के अनुकूल बन कर अपनी अभिव्यक्ति करती है। श्रीमद्भागवत में बतलाया गया है कि भक्ति योग बहु-विध मार्गों से भावित होता है और मनुष्यों के विभिन्न स्वभाव गुण के कारण वह अनेक प्रकारों में विभेदित हो जाता है।[1] भक्तों की वाणियाँ और उनके चरित्र ही इसका प्रमाण हैं। दो भक्तों के चरित्र न तो सम्पूर्णतया एक से होते हैं और न उनकी वाणियाँ ही। एक ही सम्प्रदाय के अनुयायी भक्तों की वाणियों में भी स्वभाव-गुण-जन्य विशिष्टता दिखलाई देती है। व्यक्तित्व की विशिष्टता को लेकर ही अभिव्यक्ति की विशिष्टता खड़ी होती है। भक्ति अपने गायक के व्यक्तित्व को साथ लेकर अभिव्यक्त होती है अतः भक्ति साहित्य को व्यञ्जना की अपेक्षित बैचित्री सहज रूप से प्राप्त है और इसीलिये भक्ति साहित्य में वह स्वास्थ्य और ताजगी देखने को मिलती है तो किसी भी साहित्य को गौरव प्रदान कर सकती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. भागवत, 3-29-7

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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