हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 199

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

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सिद्धान्त
वाणी


राधावल्लभीय उपासना-मार्ग का तीसरा बंग वाणी-अनुशीलन है। रसिक महानुभावों को वाणियों को प्रत्यक्ष दर्शन से उद्भूत माना गया है। इन वाणियों में जिस सहज उल्लास से प्रेम-रस का वर्णन हुआ है वह, अज्ञात प्रकार से, हृदय को इनके आशय के सम्बन्ध में निस्संदिग्ध बना देता है। काम-क्रीड़ा का वर्णन करते हुए भी इन वाणियों मे पद-पद पर काम को इस क्रीड़ा के आगे पराजित और विवश होता दिखलाया गया है। हित चतुराशी की एक प्राचीन फलस्तुति में उसको ‘काम पावक के लिये पानी’ बतलाया है, ‘भव जल-निधि कौं नाव काम पावक कौं पानी।’ काम-क्रीड़ा के वर्णन को काम-बीज नाशक बना देना, इन अनन्य रसिकों का ही काम था। वाणियों में वर्णित क्रीड़ा काम-क्रीड़ा ही है और उसका वर्णन उज्ज्वल रस की परिपाटी को छोड़ कर नहीं किया जा सकता। किंतु इस क्रीड़ा में काम प्रेम का प्रेरक नहीं उसका अनुचर है। वह प्रेम को श्रृंगार युक्त बनाता हुआ, उस का रूख लेकर, उसके पीछे चलता रहता है।

रसिकों की वाणियों में प्रेम-सौन्दर्य का वर्णन है। प्रेम-सौन्दर्य नेत्रों का विषय है और उसका वर्णन वाणी के द्वारा होता है। विधि का विधान ऐसा है कि नेत्रों को वाणी नहीं मिली है और वाणी को नेत्र नहीं मिले हैं। प्रेमियों ने प्रेम की बात कहने के लिये इस विधान को बहुत-कुछ अंशों मे शिथिल बना दिया है। उन्होंने नेत्रों को वाणी प्रदान की है और वाणी को नेत्र दिये हैं। उन्होंने वाणी के नेत्रों से प्रेम का अद्वय युगल-स्वरूप देखा है और नेत्रों की वाणी से उसका वर्णन किया है।

बैननि के नैनानि सौं दरस्यौ युगल स्वरूप।
नैननि के बैनानि सौं बरस्यौ बरन अनूप।।

जो लोग वाणियों का श्रवण करके प्रेम-सौंन्दर्य का आस्वाद करना चाहते हैं उनको अपने कानों से देखना होता है और आँखें से सुनना होता है। इस बात को स्पष्ट करते हुए श्री मोहन जी कहते हैं ‘मेरे कानों में जब तेरी बात पड़ी तब वह बात ही मेरे प्राण बन गई और जब मैंने कान में आई हुई बात के स्वरूप को देखा तब मेरे कान ही नेत्र बन गये। फिर तो मेरे यह कान रूप को सुनने लगे और वाणी को देखने लगे। इस प्रकार कभी तो यह कान रहते और कभी नेत्र बन जाते। जो देखता है वह इसी प्रकार देखता है और जो इस प्रकार देखता है वही देख पाता है। जो देखने और सुनने में अंतर रखते हैं वे अपनी इस अनसमझी से दिन-रात जलते रहते हैं। समझदारी का उदय उसी के चित्त में मानना चाहिये जो देखी हुई बात को सुन सके और सुनी हुई बात को देख सके।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

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