हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 188

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
सिद्धान्त
नित्य-विहार


परिचर्या का सहज एवं पूर्ण प्रेममय रूप ‘नित्य विहार’ में प्रकट होता है। नित्य विहारी प्रेम सहज रूप से सेव्य सेवक भाव मय है। ‘तहाँ सेव्य श्रीराधिका सेवक मोहन लाल’ और सहचरी गण सेवा की मूर्ति हैं। प्रकट सेवा और भावना में क्रमशः अधिक स्थिर होने पर मन की देहासक्ति कम होने लगती है। देह और उससे सम्बन्धित समस्त पदार्थों की ओर से वह धीरे-धीरे मरने लगता है और धीरे-धीरे प्रेम रस का अद्भुत चमत्कार उसको अपनी ओर अधिक आकर्षित करने लगता है। हृदय में प्रेम के सुस्थिर होते ही उस प्रेम में से रूप की झलक मारने लगती है और यहीं से उपासक नित्य विहार सेवा का अधिकारी बनने लगता है।

प्रेम-सौन्दर्य के दृष्टि में आते ही सम्पूर्ण दृष्टि बदल जाती है। इसको देखकर और सब देखना भुला जाता है। ‘जो एक बार इस छवि को देख लेता है उसको त्रिभुवन तृण सा लगता है। इस द्वार के भिखारी से सारा संसार भिक्षा माँगता है। जो यहाँ का हो जाता है वह अन्यत्र का नहीं रहता और युगल के रूप-लावण्य में पग जाता है। वह बेसुध और मतवाला बनकर सोता हुआ सा संसार में जागता रहता है।’

एक बार छवि देखो उसको त्रिभुवन तृन-सा लागै है।
इस दा का जु भिखारी उससे सब जग भिक्षा मागै है।।
जो ह्याँ का फिर सा न अनत का दंपति पानिग पागै है।
‘हित भोरी’ बेसुध मतवारा सोता-सा जग जागै है।।

नित्य प्रेम के नित्य नूतन रूप का प्रत्यक्ष परिचय हुए बिना यहाँ केवल बुद्धि से कोई कार्य सिद्ध नहीं होता। श्री वृन्दावन दास कहते हैं ‘रसमय धाम की रसमय सृष्टि की कथा अलौकिक है। रासेश्वरी की कृपा के अतिरिक्त यहाँ अन्य कोई साधन नहीं है। इस सृष्टि को समझने के लिये विद्वान और अविद्वान सदैव बुद्धि-बल का प्रयोग करते रहे हैं और सदैव करते रहेंगे। प्रेम-रूप का स्पर्श हुए बिना यहाँ नीरस तर्क से काम नहीं चलता।'

रस मय सृष्टि जहाँ रसमय कथा अलौकिक न्यारी।
रासेश्वरी कृपा तैं जानैं और नहीं अधिकारी।
बुधि बल करत, करि गये, करिहैं पंडित और अनारी।।
वृन्दावन हित रूप न परचे नीरस तर्क विकारी।।[1]

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. युगल-सनेह-पत्रिका

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः