श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
भावना
निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्। ‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना-वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।' इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता। इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखीरूप को और फिर सम्प्रदाय- प्रवर्तक गुरु के सखीरूप को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करना चाहिये। तदनन्तर श्रीमद् वृन्दावन का ध्यान करना चाहिये ‘जिसमें लताओं के ही नाना प्रकार के भवन बने हुए हैं और जिसकी दिशायें विचित्र पक्षियों के समूह के नाद से मुखरित हैं। उपासक, इस वृन्दावन में प्रियतम से संयुक्त प्रिया का और प्रिया से संयुक्त प्रियतम का एवं इन दोनों का मिलन ही जिसके जीवन का एकमात्र आधार है उस सखी- समुदाय का, भली प्रकार से स्मरण करे। जो युगल परस्पर दर्शन, स्पर्शन, गंधग्रहण, और श्रवण में ही तत्पर रहते हैं एवं इन बातों को छोड़कर जिनमें परस्पर कोई अन्य व्यवहार है ही नहीं, उनकी शैय्या पर विराजमान होने से पूर्व की एवं शैय्या से उठने के पश्चात की मधुर रस भरी नित्य-लीला का मन के द्वारा संस्मरण करें।' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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