हित हरिवंश गोस्वामी -ललिताचरण गोस्वामी पृ. 186

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी

Prev.png
सिद्धान्त
भावना


‘भावना’ से तात्पर्य उस सेवा से है जो किसी बाह्य उपादान के बिना केवल मन के भावों के द्वारा निष्पन्न होती है। इस सेवा में सेव्य, सेवा की सामग्री एवं सेवक भाव के द्वारा उपस्थापित होते हैं। इस सेवा का समावेश ‘ध्यान’ के अन्तर्गत होता है। इस सेवा में भी सर्वप्रथम सखी भाव को अपने मन में स्थिर करना होता है। भावना के अभ्यासी को यह तीव्र आकांक्षा अपने मन में जगानी होती है कि ‘मुझको जिस भाव का आश्रय है, वही जिनका भाव है, भगवान के उन नित्य संगीजनों[1] जैसा प्रेम मुझ में भी हो।’

निजोपजीव भावानां भगवन्नित्य संगिनाम्।
जनानां यादृशो रागस्ताट्टगस्तु सदा मयि।।[2]

‘अभ्यासी को सखीजनों के भाव की भावना में स्थिर रहना चाहिये क्योंकि उस भाव को लक्ष्य करके अपने अन्दर बढ़ी हुई भावना-वल्ली कभी फलहीन नहीं होती।'

इत्थं भावनयास्थेयं स्वस्मिस्न्तस्मभिलक्षिता।
समृद्धा भावना वल्ली न वंध्या भवति ध्रवम्।।[3]

इस सम्प्रदाय के भाव के अनुकूल भावना के अभ्यास का क्रम इस प्रकार बतलाया गया है। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर एवं मन को एकाग्र करके पहिले मंत्रोपदेष्टा गुरु के सखीरूप को और फिर सम्प्रदाय- प्रवर्तक गुरु के सखीरूप को श्रद्धापूर्वक नमस्कार करना चाहिये। तदनन्तर श्रीमद् वृन्दावन का ध्यान करना चाहिये ‘जिसमें लताओं के ही नाना प्रकार के भवन बने हुए हैं और जिसकी दिशायें विचित्र पक्षियों के समूह के नाद से मुखरित हैं। उपासक, इस वृन्दावन में प्रियतम से संयुक्त प्रिया का और प्रिया से संयुक्त प्रियतम का एवं इन दोनों का मिलन ही जिसके जीवन का एकमात्र आधार है उस सखी- समुदाय का, भली प्रकार से स्मरण करे। जो युगल परस्पर दर्शन, स्पर्शन, गंधग्रहण, और श्रवण में ही तत्पर रहते हैं एवं इन बातों को छोड़कर जिनमें परस्पर कोई अन्य व्यवहार है ही नहीं, उनकी शैय्या पर विराजमान होने से पूर्व की एवं शैय्या से उठने के पश्चात की मधुर रस भरी नित्य-लीला का मन के द्वारा संस्मरण करें।'

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. सखीजनों
  2. अ. वि. 6
  3. अ. वि. 7

संबंधित लेख

श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
विषय पृष्ठ संख्या
चरित्र
श्री हरिवंश चरित्र के उपादान 10
सिद्धान्त
प्रमाण-ग्रन्थ 29
प्रमेय
प्रमेय 38
हित की रस-रूपता 50
द्विदल 58
विशुद्ध प्रेम का स्वरूप 69
प्रेम और रूप 78
हित वृन्‍दावन 82
हित-युगल 97
युगल-केलि (प्रेम-विहार) 100
श्‍याम-सुन्‍दर 13
श्रीराधा 125
राधा-चरण -प्राधान्‍य 135
सहचरी 140
श्री हित हरिवंश 153
उपासना-मार्ग
उपासना-मार्ग 162
परिचर्या 178
प्रकट-सेवा 181
भावना 186
नित्य-विहार 188
नाम 193
वाणी 199
साहित्य
सम्प्रदाय का साहित्य 207
श्रीहित हरिवंश काल 252
श्री धु्रवदास काल 308
श्री हित रूपलाल काल 369
अर्वाचीन काल 442
ब्रजभाषा-गद्य 456
संस्कृत साहित्य
संस्कृत साहित्य 468
अंतिम पृष्ठ 508

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः