श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
परिचर्या
परिचर्या तु सा ज्ञेंया सेवा या दास वन्नृपे। सम्पूर्ण अधीनता प्रेम का एक अत्यन्त मौलिक अंग है, यह हम देख चुके हैं। यह अधीनता नितान्त स्वभाविक होती है, अतः इसका पूरा उदाहरण नहीं मिल सकता। क्रीतदासों की अपने स्वामी के प्रति एकान्त अधीनता से इसको कुछ समझा जा सकता है। किन्तु इन दोनों में एक बड़ा भारी अंतर यह है कि प्रेम में मनुष्य को बिना मोल बिक जाना पड़ता है। क्रीत दास अवसर मिलने पर मुक्ति का स्वप्न देखता है। प्रेमी के लिये मुक्ति अकल्पनीय ही नहीं, सबसे बड़ा अभिशाप है। उपासक के हृदय में प्रेम की इस सहज अधीनता को उदय करना ही ‘परिचर्या’ का प्रधान लक्ष्य है। परिचर्या दो भावों से की जाती हैं, दास-भाव से और दासी-भाव से। अधीनता समान होते हुए भी, रसिकों ने, रस के अधिकार की दृष्टि सी, इन दोनों में बहुत बड़ा अंतर माना है। उज्ज्वल रस की परिचर्या में केवल दासी-भाव का ही अधिकार है। दास भाव ही नहीं, सख्य एवं बत्सल भावों का भी वहाँ प्रवेश नहीं होता। उज्ज्वल रस की उपासना की दृष्टि से दासी-भाव, सख्य-भाव, वत्सल-भाव एवं दासी-भाव किंवा सखी-भाव के तारतम्य को स्पष्ट करते हुए गोस्वामी ब्रजलाल जी कहते हैं ‘दास अपने स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा राजसभा में कर सकता है, अन्तपुर में उसका कोई अधिकार नहीं होता है। सखागण श्रीकृष्ण के साथ समानता के भाव से हास-परिहास करते हैं किन्तु रहस्य में उनका भी प्रवेश नहीं है। वत्सल भाव में स्नेह तो खूब होता है किन्तु दोनों के बीच में स्वामि-सेवक भाव नहीं होता। अतः श्री राधा की दासी किंवा सखी भाव के बिना उपासक का प्रवेश रास लीला में नहीं होता। दासः स्वास्वामि सेवा सदसि च कुरुतान्नान्तर स्याधिकारः, |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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