श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
सहचरी
राधावल्लभीय धर्म में, जिस प्रकार, पुराणों के राधाकृष्ण प्रेम की दो मधुरतम अभिव्यक्तियों के रुप में सामने आते हैं, उसी प्रकार पुराणों की सखियाँ भी, इस धर्म में, एक नया व्यक्तित्व ग्रहण कर लेती हैं। यहाँ सखियों के नाम, वेष भूषादि वहीं हैं जो पुराणों में वर्णित हैं। ध्रुवदासजी ने ‘रस मुक्तावली’ में पुराणों के आधार पर ही सखियों का वर्णन किया है और आरंभ में ही कह दिया है। नाम, बरन, सेवा, बसन जैसे सुने पुरान। किन्तु, यह सब होते हुए भी, वे पुराणों की सहचरियाँ नहीं हैं। इस संप्रदाय में, वे परात्पर प्रेम का एक रूप-विशेष हैं और प्रेम-विहार के लिए उतनी ही आवश्यक हैं जितने अन्य दो रूप-श्रीराधा और श्यामसुन्दर। सहचरीगण प्रेरक-प्रेम की मूर्तियाँ हैं। भोक्ता-भोग्य की पारस्परिक रति ही इनके रूप में प्रत्यक्ष होती है। श्याम-सुन्दर की अनंत प्रेम-तृषा तथा श्रीराधा के परम उद्धार प्रीति संभार को अपने हृदय में रखकर सहचरीगण इन दोनों की शुद्ध तत्सुखमई सेवा में प्रवृत्त रहती हैं। भोक्ता–भोग्य की स्वाभावत: भिन्न वर्ण वाली दो प्रीतियों के मिलने में इस नवीन प्रकार के अत्यन्त मनोरम प्रीति-स्वरूप की रचना हुई है जो दोनों प्रीतियों से अभिन्न होते हुए भी भिन्न हैं। दो प्रीतियों का संगम-स्थल होने के कारण इसको हित-संधि भी कहा जाता है। प्रेम के क्षेत्र में हित-संधि की स्थिति को सोदाहरण समझाते हुए मोहनजी कहते हैं, ‘हम प्रेम की अद्भुत गति है और इसका प्रकाश अनेक प्रकारों में होता है। दो शरीरों की एक परछांही किसी ने न सुनी होगी, किन्तु युगल के बीच में जिनको हम सखी कहते हैं, वह दो तन की एक परछाँही है। जैसे दो नेत्रों में एक दृष्टि रहती है, वैसे ही इन दोनों के बीच में सुखदाई सखी है। जैसे रात और दिन के बीच की संधि का नाम सन्ध्या है, जैसे ॠतुओं की संधि शरद और बसंत हैं और जैसे मिश्री और पानी मिलकर शरबत कहलाते हैं, संधि-रूपा सखियों को भी इसी भाँति समझना चाहिये। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रस मुक्तावली
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