श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
राधा-चरण-प्राधान्य
राधा-सुधा-निधि के एक श्लोक में श्रीराधा को ‘शक्ति: स्वतन्त्रा परा’ कहा गया है; और इस के आधार पर कुछ लोग हितप्रभु को शक्ति-रूपा सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। किन्तु उक्त श्लोक को ध्यान पूर्वक देखने से मालूम होता है कि इस में हितप्रभु ने श्रीराधा संबंधी सब प्रचलित मान्यताओं को एक स्थान में एकत्रित कर दिया है और साथ में अपना दृष्टिकोण भी दे दिया है। वह श्लोक इस प्रकार है। प्रेम्ण: सन्मधुरीज्ज्वलस्य हृदयं, श्रृंगार लीला कला- इस श्लोक में, हितप्रभु ने, ‘मधुरोज्जवल प्रेम की हृदय रूपा, श्रृंगाल-लीला-कला-वैचित्री की परमावधि, श्रीकृष्ण की कोई अनिर्वचनीय आज्ञाकर्त्री, ईशानी, शची, महा सुख रूप शरीर वाली, स्वतन्त्रा परा शक्ति और वृन्दावन नाथ की पट्ट महिषी श्रीराधा’ को ही अपनी सेव्या बतलाया है। हितप्रभु के सिद्धान्त से परिचित कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि वे श्रीराधा की उपसाना उनके ईशानी, शची या शक्ति के रूपों में करते हैं किन्तु इन सब रूपों वाली श्रीराधा ही उनकी इष्ट हैं, इसमें संदेह नहीं है। हित प्रभु श्यामाश्याम के बीच में स्थूल विरह नहीं मानते किन्तु राधा सुधा निधि में एक श्लोक ऐसा भी मिलता है जिसमें उन्होंने स्थूल वियोगवती श्री राधा की वंदना की है।[2] इस श्लोक को देखकर भी लोगों को भ्रम होता है और कुछ लोग तो इस प्रकार के श्लोकों के आधार पर राधा-सुधा-निधि को ही श्रीहित हरिवंश की रचना स्वीकार नहीं करते। किन्तु हितप्रभु के तीस-चालीस वर्ष बाद ही होने वाले श्रीध्रुवदास ने इस प्रकार की उक्तियों के संबंध में अपने ‘सिद्धान्त-विचार’ में कहा है, ‘जो कोऊ कहै कि मान-विरह महा पुरुषन गायो है, सो सदाचार के लिये। औरनि कौं समुझाइवे कौं कहयौ है। पहिले स्थूल-प्रेम समुझै तब आगे चलै। जैसे, श्रीभागवत की बानी। पहिले नवधा भक्ति करै तब प्रेम लच्छना आवै। अरु महा पुरुषनि अनेक भाँति के रस कहे हैं, एपै इतनौ समुझनौ कै उनको हियौ कहाँ ठहरायौ है, सोई गहनौ'। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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