श्रीहित हरिवंश गोस्वामी:संप्रदाय और साहित्य -ललिताचरण गोस्वामी
सिद्धान्त
श्रीराधा
भारतीय रसिकता, अपने सुदीर्घ इतिहास में, जिन सौन्दर्य प्रतिमाओं के आगे नत-शिर हुई है, उनमें श्रीराधा सर्वोज्जवल हैं। विद्वानों ने यह दिखलाने की चेष्टा की है कि श्रीराधा के स्वरूप का क्रम-विकास हुआ है। इस संबंध में श्री शशिभूषण दस रचित ‘श्री राधा रक्रम-विकास’ नामक बंगला पुस्तक द्रष्टव्य है। दास महाशय ने इस ग्रन्थ में पद्य पुराण और नारद पंचरात्र से श्री राधा संबंधी उद्धरण दिये हैं और कहा है कि इन वर्णनों को देखकर पूर्ण संदेह होता है कि यह सब राधा कृष्णोपासक संप्रदायों के उदय के बाद इन पुराणों में जोड़े गये हैं। राधाकृष्ण-लीला का विशद वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में मिलता है। इस पुराण की प्राचीनता पर भी लेखक ने संदेह प्रगट किया है। मत्स्य पुराण में इस पुराण के आकार-प्रकार का जो वर्णन है, वह ब्रह्मवैवर्त पुराण के वर्तमान संस्करण में नहीं मिलता। दूसरी बात यह है कि गौड़ीय गौस्वामी गण ने इस पुराण के कोई उद्धरण अपने ग्रन्थों में नहीं दिये हैं। विद्वान् लेखक के मत में श्रीराधा का क्रम-विकास मूलत: साहित्य को आश्रय बनाकर हुआ है। साहित्य में श्रीराधा का सर्वप्रथम ‘गाहा सतसई’ में मिलता है। इसके कर्ता हाल सातवाहन ईसा की प्रथम शती में प्रतिष्ठानपुर में राज्य करते थे। इस सतसई का सर्वप्रथम उल्लेख बाणभट्ट ने अपने ‘हर्ष-चरित’ में किया है। ‘गाहा सतसई’ के बाद श्रीराधा कृष्ण का उल्लेख संस्कृत साहित्य में बरावर होता रहा है, इस बात को अनेक उद्धरण देकर लेखक ने प्रमाणित कर दिया है। अंत में सोलहवीं शती में उदित होने वाली विभिन्न राधाकृष्णोपासक संप्रदायों का श्रीराधा-संबंधी दृष्टिकोण दिया है। राधा वल्लभीय संप्रदाय का पक्ष उपस्थित करने की चेष्टा भी विद्वान लेखक ने की है। किन्तु उनको इस संप्रदाय के मूल ग्रन्थ अनुपलब्ध थे अत: वे कोई ठिकाने की बात नहीं लिख पाये हैं। अन्य कई संप्रदायों की श्रीराधा-संबंधी मान्यता भी वे सही रूप में उपस्थित नहीं कर सके हैं। श्रीराधा-स्वरूप के उत्कर्ष के बाद प्राय: सभी प्राचीन और अर्वाचीन संप्रदायों में श्रीराधा-संबंधी साहित्य का निर्माण हुआ है। इस साहित्य का अध्ययन बहुत सतर्कता, तटस्थता और साहस के साथ करने पर ही सत्य की उपलब्धि होती है। जो हो, राधा वल्लभीय साहित्य में, श्रीहरिराम व्यास ने ‘वृन्दावन के रसमय वैभव’ का प्रथम गायक श्री जयदेव को बतलाया है। वृन्दावन कौ रसमय वैभव पहिलैं सबनि सुनायौ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ साधुनि की स्तुति
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