हरिरथ रतन जरयौ सु अनूप दिखावै2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग आसावरी
उध्दव आगमन, भ्रमरगीत संक्षेप


ऊधौ जनि कहौ प्रभु कौ प्रभुताई।
सुनि जिय अलख सही न रिस जाई।।
रिस नहिं जाई अनख बढ़यौ अति, पुनि ह्यौ लौ चतुराई।
दासी कुबिजा नीच कुसगति, कौन वेदमति पाइ।।
तुमहूँ भली कहन कौ आए, हमधौ भले नयाने।
जो कछु वस्तु देखियत नैननि, सो किन मनहो माने।।
गोविंद की बातै सब जानै।
परबस भई कहत सोइ मानै।।
सब कोउ जानै, क्यौ मन मानै, अब न कछु कहि आवै।
जो कछु कुबिजा के मन भावै, सोई नाच नचावै।।
वाकौ न्याउ दोष सब हमकौ, कर्मरेख को जानै।
गोरस देखि जु राख्यौ गाहक, विधना की गति आनै।।
( ऊधौ ) कमलनैन सौ कहियौ जाइ।
एक वेर व्रज देखौ आइ।।
जिनकौ प्रीति निरंतर मन मै, सो मन क्यौ समुझावै।
संकर, ब्रह्म, सेष अरु सुरपति, कोउ हरि दरसन न पावै।।
वैसेइ रास बिलास कुलाहल, घर घर माखन हरियै।
‘सूरदास’ प्रभु मिलत बहुत सुख, बिरह स्वास कत जरियै।।4093।।

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