हरि ब्रज-जन के दुख-विसरावन।
कहाँ कंस, कब कमल मँगाए, कहाँ दवानल-दावन।
जल कब गिरे, उरग कब नाथ्यौ, नहि जानत ब्रज-लोग।
कहाँ बसे इक दिवस रैनि भरि, कबहिं भयौ यह सोग।
यह जानत हम ऐसेहिं ब्रज मैं, वैसेहिं करत बिहार।
सूर स्याम जननी सौं माँगत, माखन बारंबार।।603।।