हरि जू की आरती बनी -सूरदास

सूरसागर

द्वितीय स्कन्ध

Prev.png
राग केदारी
आरती



हरि जू की आरती बनी।
अति विचित्र रचना रचि राखी, परति न गिरा गनी।
कच्छप अघ आसन अनूप अति, डाँड़ी सहस फनी।
महो सराव, सप्त सगर घृत, वाती सैल धनी।
रवि-ससि-ज्योति जगत परिपूरन, हरति तिमिर रजनी।
उड़त फूल उड़गन नभ अंतर, अंजन घटा घनी।
नारदादि सनकादि प्रजापति, सूर-नर-असुर-अनी।
काल-कर्म-गुन-ओर-अंत नहिं, प्रभु इच्छा रचनी।
यह प्रताप दीपक सुनिरंतर लोक सकल भजनी।
सुरदास सब प्रगट ध्यान मैं अति विचित्र सजनी।।28।।


इस पद के अनुवाद के लिए यहाँ क्लिक करें
Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः