विरह-पदावली -सूरदास
राग सारंग (सूरदास जी के शब्दों में गोपी कह रही है- सखी!) श्यामसुंदर के बिना यह शंकर का तिलक (चन्द्रमा) मुझे जला रहा है। वह चंद्रमा कहा तो अमृतमय (शीतल) जाता है; किंतु अपना स्वभाव छोड़कर (वह) मेरे साथ (यह कैसा जलाने का) व्यवहार कर रहा है। इसका रथ पश्चिम दिशा में क्यों रुक गया है (यह शीघ्र अस्त क्यों नही होता)? क्या राहु जैसे इसे ग्रस लेता है, वैसे ही यह मुझे ग्रस लेना (अपना ग्रास बना लेना) चाहता है? सखी! सुन, रात्रि भी घट नहीं रही है, (आज) भूमि-भवन-रिपू मुर्गा (भी) कहाँ रह गया, जो बोलना नही (और इस प्रकार सवेरा नही हो पाता)। जिस (चन्द्रमा) का जन्म शीतल समुद्र से हुआ है, वह सूर्य के समान प्रखर होकर पता नहीं क्या (करना) चाहता है। स्वामी! तुम्हारे दर्शन के बिना हम प्राण त्याग देगीं। अब यह (कष्ट) सहा नही जाता।[1] |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ भूमि-भवन-रिपू (भूमि भवन-सर्प, उनके शत्रु)-अरुण भूमि-भवन-कीड़े, उनका शत्रु-मुर्गा। यह पद-मूलरूपसे-सभा (काशी), नवल कि.प्रे. लखनऊ (मुद्रित) पो. हनुमान प्रसाद तथा भरतपुर स्टेट की प्रति के अन्तरिक्त बालकृष्ण और सरदार कविकृत सटीक सूर के कूटों में आया है। दोनों में 'भूमि-भवन-रिपु' का अर्थ भिन्न है, अत: बालकृष्णकृत अर्थ मुर्गा ही यहाँ उपयुक्त है।
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