विरह-पदावली -सूरदास
(286) (सूरदास जी के शब्दों में कोई गोपी कह रही है-) सखी! हमारे हृदय ने (कठोरता में) व्रज को भी जीत लिया है। (मोहन के लौटने की) उस आशा में अब भी यह फटता नहीं, (एक-एक दिन करके) पूरा वर्ष बीत गया। अब हमारी समझ में भी यह बात भली प्रकार आ गयी कि कालों की यही रीति है। उन्होंने फिर (हमारे) जीवन-मरण से कोई सम्बन्ध नहीं रखा, भौंरे की-सी प्रीति की। खँडहर दीवाल की तरह हमारे नष्ट होने की बात तो अब घड़ी-प्रहारों की है (उसमें अधिक देर नहीं)। अब श्यामसुन्दर और दासी (कुब्जा) दोनों सुखपूर्वक सोयें, उन दोनों के मन की चाही बात (कि हम नष्ट हो जायँ) हो गयी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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