विरह-पदावली -सूरदास
राग भोपाल (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है-) सखी! इस शरीर को रखने के प्रयत्न से हमें क्या लाभ? अब (हमारी मृत्यु के) इस सुयश को वे सुन्दर (श्याम) ही लें। सभी यातनाएँ और सुख इसी शरीर तक हैं और इसे छोड़ देने से (हमारी) कुछ भी हानि होती नहीं। पुष्पों की शय्या तो कामदेव के श्रेष्ठ (तीखे) बाण के समान लगती है, अतः हमारे प्राण हरण करके वे हमारे प्राणनाथ जीवित रहें। हम सबों को अथाह वियोग देकर स्वयं संकोचहीन बने श्रीयदुनाथ अपनी सब अभिलाषाएँ बिना किसी भय के पूरी कर लें। सबसे कहती हूँ कि क्रोध करके मन में रुष्ट होने से कुछ काम नहीं चलेगा। अतः अच्छा है, प्राण त्याग कर दें। सखी! उन उत्तम स्वामी से इस (हमारी प्राण-त्याग की) चतुरता की चर्चा करके तुम उनके पास जाकर बधाई ले लेना (हमारे प्राण-त्याग के बाद उन्हें जाकर यह समाचार सुना देना)। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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