विरह-पदावली -सूरदास
(173) (सूरदास जी के शब्दों में एक गोपी कह रही है- सखी!) मुझे जागते रहकर, जगत के जीवन (स्वरूप) कमल लोचन की अकथनीय कथा गाते हुए ही रात बीतती है। श्यामसुन्दर के बिना मेरे लिये रात वियोग का अथाह समुद्र हो जाती है और मैं उस (समुद्र) में डूब जाती हूँ। भला, वियोगिनी (श्यामसुन्दर रूपी) केवट के मार्गदर्शन के बिना उस (विरह-सागर) का पार कैसे पा सकती है। सूर्य के उदय होने पर चकोरी का (अपने प्रियतम से) मिलाप हो जाता है और रात में भौंरे कमल से मिलते (उसी में निवास करते) हैं; किंतु हमें तो रात-दिन असहनीय दुःख-ही-दुःख है, गोविन्द को क्या कहें। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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