स्कन्द द्वारा तारकासुर, महिषासुर आदि दैत्यों का सेनासहित संहार

महाभारत शल्य पर्व में गदा पर्व के अंतर्गत 46वें अध्याय में वैशम्पायन जी ने स्कन्द द्वारा तारकासुर, महिषासुर आदि दैत्यों और उनकी सेना के संहार का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है[1]-

कार्तिकेय तारकासुर, महिषासुर आदि दैत्यों का सेनासहित संहार

वैशम्पायन जी कहते हैं- राजन! देवता अपने हाथों में नाना प्रकार के अस्त्र शस्त्र ले उन दैत्यों का पीछा करने लगे। यह सब देखकर तेज और बल से सम्पन्न भगवान स्कन्द कुपित हो उठे और शक्ति नामक भयानक अस्त्र का बारंबार प्रयोग करने लगे। उन्होंने उसमें अपना तेज स्थापित कर दिया था और वे उस समय घी से प्रज्वलित हुई अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। महाराज! अमित तेजस्वी स्कन्द के द्वारा शक्ति का बारंबार प्रयोग होने से पृथ्वी पर प्रज्वलित उल्का गिरने लगीं। नरेश्वर! जैसे प्रलय के समय अत्यन्त भयंकर वज्र भारी गड़गड़ाहट के साथ पृथ्वी पर गिरने लगते हैं, उसी प्रकार उस समय भी भीषण गर्जना के साथ वज्रपात होने लगा। भरतश्रेष्ठ! अग्नि कुमार ने जब एक बार अत्यन्त भयंकर शक्ति छोड़ी, तब उससे कराड़ों शक्तियां प्रकट होकर गिरने लगी। इससे प्रभावशाली भगवान महासेन बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने महान बल एवं पराक्रम से सम्पन्न उस दैत्यराज तारक को मार गिराया, जो एक लाख बलवान एवं वीर दैत्यों से घिरा हुआ था। साथ ही उन्होंने युद्धस्थल में आठ पदम दैत्यों से घिरे हुए महिषासुर का, दस लाख असुरों से सुरक्षित त्रिपाद का और दस निखर्व दैत्य-योद्धाओं से घिरे हुए हदोदर का भी नाना प्रकार के आयुधधारी अनुचरों सहित वध कर डाला।[1]

राजन! जब शत्रु मारे जाने लगे, उस समय कुमार के अनुचर दसों दिशाओं को गुंजाते हुए बड़े जोर-जोर से गर्जना करने लगे। इतना ही नहीं, वे आनन्दमग्न होकर नाचने, कूदने तथा जोर-जोर से हंसने भी लगे। राजेन्द्र! उस शक्ति नामक अस्त्र की सब ओर फैलती हुई ज्वालाओं से सारी त्रिलोकी थर्रा उठी। सहस्रों दैत्य उस शक्ति की आग में जलकर भस्म हो गये। कितने ही स्कन्द के सिंहनादों से ही डरकर अपने प्राण खो बैठे तथा कुछ देवद्रोही उनकी पताका से ही कम्पित होकर मर गये। कुछ दैत्य उनके घंटानाद से संत्रस्त होकर धरती पर बैठ गये और कुछ उनके आयुधों से छिन्न-भिन्न हो गतायु होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इस प्रकार महाबली शक्तिशाली वीर कार्तिकेय ने समरांगण में अनेक आततायी देवद्रोहियों का संहार कर डाला। राजा बलि का महाबली पुत्र बाणासुर क्रौन्च पर्वत का आश्रय लेकर देव समूहों को कष्ट पहुँचाया करता था। उदार बुद्धि महासेन ने उस दैत्य पर भी आक्रमण किया। तब वह कार्तिकेय के भय से क्रौन्च पर्वत की शरण में जा छिपा। इससे भगवान कार्तिकेय को महान क्रोध हुआ। उन्होंने अग्नि की दी हुई शक्ति से क्रौन्च पक्षियों के कोलाहल से गूंजते हुए क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला। क्रौन्च पर्वत शालवृक्ष के तनों से भरा हुआ था। वहाँ के वानर और हाथी संत्रस्त हो उठे थे, पक्षी भय से व्याकुल होकर उड़ चले थे, सर्प धराशायी हो गये थे, गोलांगूल जाति के वानरों और रीछों के समुदाय भाग रहे थे तथा उनके चीत्कार से वह पर्वत गूंज उठा था, हरिणों के आर्तनाद से उस पर्वत का वनप्रान्त प्रतिध्वनित हो रहा था, गुफा से निकलकर सहसा भागने वाले सिंहों और शरभों के कारण वह पर्वत बड़ी शोचनीय दशा में पड़ गया था तो भी वह सुशोभित सा ही हो रहा था।

उस पर्वत के शिखर पर निवास करने वाले विद्याधर और किन्नर शक्ति के अघातजनित शब्द से उद्विग्न होकर आकाश में उड़ गये। तत्पश्चात उस जलते हुए श्रेष्ठ पर्वत से विचित्र आभूषण और माला धारण करने वाले सैकड़ों और हज़ारों दैत्य निकल पड़े। कुमार के पार्षदों ने युद्ध में आक्रमण करके उन सब दैत्यों को मार गिराया। साथ ही भगवान कार्तिकेय ने कुपित होकर वृत्रासुर को मारने वाले देवराज इन्द्र के समान दैत्यराज के उस पुत्र को उसके छोटे भाई सहित शीघ्र ही मार डाला। शत्रुवीरों का संहार करने वाले महाबली अग्नि पुत्र कार्तिकेय ने अपने आपको एक और अनेक रूपों में प्रकट करके शक्ति द्वारा क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण कर डाला। रणभूमि में बार-बार चलायी हुई उनकी शक्ति शत्रु का संहार करके पुनः उनके हाथ में लौट आती थी। अग्नि पुत्र कार्तिकेय का ऐसा ही प्रभाव है, बल्कि इससे भी बढ़कर है। वे शौर्य की अपेक्षा उत्तरोत्तर दुगुने तेज, यश और श्री से सम्पन्न हैं। उन्होंने क्रौन्च पर्वत को विदीर्ण करके सैकड़ों दैत्यों को मार गिराया। तदनन्तर भगवान स्कन्द देव देवशत्रुओं का संहार करके देवताओं से सेवित हो अत्यन्त आनन्दित हुए। भरतवंशी नरेश! तत्पश्चात दुन्दुभियां बज उठीं, शंखों की ध्वनि होने लगी, सैकड़ों और हज़ारों देवांगनाएं योगीश्वर स्कन्द देव पर उत्तम फूलों की वर्षा करने लगीं। दिव्य फूलों की सुगन्ध लेकर पवित्र वायु चलने लगी। गन्धर्व और यज्ञपरायण महर्षि उनकी स्तुति करने लगे।[2]

कोई उनके विषय में यह निश्चय करने लगे कि ‘ये ब्रह्मा जी के पुत्र, सबके अग्रज एवं ब्रह्मयोनि सनत्कुमार हैं’। कोई उन्हें महादेव जी का, कोई अग्नि का, कोई पार्वती का, कोई कृत्तिकाओं का और कोई गंगा जी का पुत्र बताने लगे। उन महाबली योगेश्वर स्कन्द देव को लोग एक, दो, चार, सौ तथा सहस्रों रूपों में देखते और जानते हैं। राजन! यह मैंने तुम्हें कार्तिकेय के अभिषेक का प्रसंग सुनाया है। अब तुम सरस्वती के उस श्रेष्ठ तीर्थ की पावनता का वर्णन सुनो। महाराज! कुमार कार्तिकेय के द्वारा देवशत्रुओं के मारे जाने पर वह श्रेष्ठ तीर्थ दूसरे स्वर्ग के समान सुखदायक हो गया। वहीं रहकर स्वामी स्कन्द ने पृथक-पृथक ऐश्वर्य प्रदान किये। अग्नि कुमार ने अपनी सेना के मुख्य मुख्य अधिकारियों को तीनों लोक सौंप दिये। महाराज! इस प्रकार दैत्यकुलविनाशक देव सेनापति भगवान स्कन्द का उस तीर्थ में देवताओं द्वारा अभिषेक किया गया। भरतश्रेष्ठ! वह तैजस नाम का तीर्थ है, जहाँ पहले जल के स्वामी वरुणदेव का देवताओं द्वारा अभिषेक किया गया था। उस श्रेष्ठ तीर्थ में हलधारी बलराम ने स्नान करके स्कन्द देव का पूजन किया और ब्राह्मणों को सुवर्ण, वस्त्र एवं आभूषण दिये। शत्रुवीरों का संहार करने वाले मधुवंशी हलधर वहाँ रात भर रहे और उस श्रेष्ठ तीर्थ का पूजन एवं उसके जल में स्नान करके हर्ष से खिल उठे। उन यदुश्रेष्ठ बलराम का मन वहाँ प्रसन्न हो गया था। राजन! तुम मुझसे जो कुछ पूछ रहे थे, वह सब प्रसंग मैंने तुम्हें कह सुनाया। समागत देवताओं द्वारा किस प्रकार भगवान स्कन्द का अभिषेक हुआ और किस प्रकार बाल्यावस्था में ही वे महाबली कुमार सेनापति बना दिये गये, यह सब कुछ बता दिया गया।[3]


टीका टिप्पणी व संदर्भ

  1. 1.0 1.1 महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 55-75
  2. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 76-97
  3. महाभारत शल्य पर्व अध्याय 46 श्लोक 98-108

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