- महाभारत आश्वमेधिक पर्व के अनुगीता पर्व के अंतर्गत अध्याय 73 में सेना सहित अर्जुन के द्वारा अश्व के अनुसरण का वर्णन हुआ है।[1]
विषय सूची
अर्जुन द्वारा घोड़े का अनुगमन
वैशम्पायन जी कहते हैं– जनमेजय! जब दीक्षा का समय आया, तब उन व्यास आदि महान ऋत्विजों ने राजा युधिष्ठिर को विधिपूर्वक अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा दी। पशुबन्ध–कर्म करके यज्ञ की दीक्षा लिये हुए महातेजस्वी पाण्डुनन्दन धर्मराज युधिष्ठिर ऋत्विजों के साथ बड़ी शोभा पाने लगे। अश्वमेध यज्ञ के लिये छोड़े हुए घोड़े का अर्जुन के द्वारा अनुगमन अमित तेजस्वी ब्रह्मवादी व्यास जी ने अश्वमेध–यज्ञ के लिये चुने गये अश्व को स्वयं ही शास्त्रीय विधि के अनुसार छोड़ा। राजन! यज्ञ में दीक्षित हुए धर्मराज राजा युधिष्ठर सोने की माला और कण्ठ में सोने की कण्ठी धारण किये प्रज्वलित अग्नि के समान प्रकाशित हो रहे थे। काला मृगचर्म, हाथ में दण्ड और रेशमी वस्त्र धारण किये धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर अधिक कान्तिमान हो यज्ञ मण्डप में प्रजापति की भाँति शोभा पा रहे थे।
प्रजानाथ! उनके समस्त ऋत्विज भी उन्हीं के समान वेशभूषा धारण किये सुशोभित होते थे। अर्जुन भी प्रज्जलित अग्नि के समान दीप्तिमान हो रहे थे। भूपाल जनमेजय! श्वेत घोड़े वाले अर्जुन ने धर्मराज की आज्ञा से उस यज्ञ सम्बन्धी अश्व का विधिपूर्वक अनुसरण किया। पृथ्वीपाल! राजन! अर्जुन अपने हाथों में गोधा के चमड़े के बने दस्ताने पहन रखे थे। वे गाण्डीव धनुष की टंकार करते हुए बड़ी प्रसन्नता के साथ अश्व के पीछे–पीछे जा रहे थे। जनमेजय! प्रभो! उस समय यात्रा करते हुए कुरुश्रेष्ठ अर्जुन को देखने के लिये बच्चों से लेकर बूढ़ों तक सारा हस्तिनापुर वहाँ उमड़ आया था। यज्ञ के घोड़े और उसके पीछे जाने वाले अर्जुन को देखने की इच्छा से लोगों की इतनी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी कि आपस में धक्का–मुक्की से सबके बदन में पसीने निकल आये।
महाराज! उस समय कुन्तीपुत्र धनंजय का दर्शन करने वाले लोगों के मुख से जो शब्द निकलता था, वह सम्पूर्ण दिशाओं और आकाश में गूँज रहा था। (लोग कहते थे-) ‘ये कुन्तीकुमार अर्जुन जा रहे हैं और दीप्तिमान अश्व जा रहा है, जिसके पीछे महाबाहु अर्जुन उत्तम धनुष धारण किये जा रहे है।’ उदारबुद्धि अर्जुन ने परस्पर वार्तालाप करते हुए लोगों की बातें इस प्रकार सुनीं– भारत! तुम्हारा कल्याण हो। तुम सुख से जाओ और पुन: कुशलपूर्वक लौट आओ।’ नरेन्द्र! दूसरे लोग ये बातें कहते थे– ‘इस भीड़ में हम अर्जुन का तो नहीं देखते हैं; किन्तु उनका यह धनुष दिखायी देता है। यही वह भयंकर टंकार करने वाला विख्यात गांडीव धनुष है।
अर्जुन की यात्रा सकुशल हो। उन्हें मार्ग में कोई कष्ट न हो। ये निर्भय मार्ग पर आगे बढ़ते रहें। ये निश्चय ही कुशलपूर्वक लौटेंगे और उस समय हम फिर इनका दर्शन करेंगे। भरतश्रेष्ठ! इस प्रकार उदारबुद्धि अर्जुन स्त्रियों और पुरुषों की कही हुई मीठी–मीठी बातें बारम्बार सुनते थे। याज्ञवल्क्य मुनि के एक विद्वान शिष्य, जो यज्ञ कर्म में कुशल तथा वेदों में पारंगत थे, विध्न की शान्ति के लिये अर्जुन के साथ गये।[1]
वैशम्पायन द्वारा महाभारत युद्ध का वर्णन
महाराज! प्रजानाथ! उनके सिवा और भी बहुत-से वेदों में पारंगत ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने धर्मराज की आज्ञा से विधिपूर्वक महात्मा अर्जुन का अनुसरण किया। महाराज! साधुशिरोमणे! पाण्डवों ने अपने अस्त्र के प्रताप से जिस पृथ्वी को जीता था, उसके सभी देशों में वह अश्व क्रमश: विचरण करने लगा। वीर! उन देशों में अर्जुन को जो बड़े–बड़े अद्भुत युद्ध करने पड़े, उनकी कथा तुम्हें सुना रहा हूँ। पृथ्वीनाथ! वह घोड़ा पृथ्वी की प्रदक्षिणा करने लगा। सबसे पहले वह उत्तर दिशा की ओर गया। फिर राजाओं के अनेक राज्यों को रौंदता हुआ वह उत्तम अश्व पूर्व की ओर मु़ड़ गया। उस समय श्वेतवाहन महारथी अर्जुन धीरे–धीरे उसके पीछे–पीछे जा रहे थे।
महाराज! महाभारत युद्ध में जिनके भाई–बन्धु मारे गये थे, ऐसे जिन–जिन क्षत्रियों ने उस समय अर्जुन के साथ युद्ध किया था, उन हजारों नरेशों की कोई गिनती नहीं है। राजन! तलवार और धनुष धारण करने वाले बहुत–से किरात, यवन और मलेच्छ, जो पहले महाभारत–युद्ध में पाण्डवों द्वारा परास्त किये गये थे, अर्जुन का सामना करने के लिये आये। हष्ट- पुष्ट मनुष्यों और वाहनों से युक्त बहुत–से रणदुर्मद आर्य नरेश भी पाण्डुपुत्र अर्जुन से भिड़े थे। पृथ्वीनाथ! इस प्रकार भिन्न–भिन्न स्थानों में नाना देशों से आये हुए राजाओं के साथ अर्जुन को अनेक बार युद्ध करने पड़े। निष्पाप नरेश! जो युद्ध दोनों पक्ष के योद्धाओं के लिये अधिक कष्टदायक और महान थे, अर्जुन के उन्हीं युद्धों का मैं यहाँ तुमसे वर्णन करूँगा।[2]
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 73 श्लोक 1-17
- ↑ महाभारत आश्वमेधिक पर्व अध्याय 73 श्लोक 18-28
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