सूरदास मदनमोहन

सूरदास मदनमोहन गौड़ीय सम्प्रदाय के नैष्ठिक वैष्णव थे, उनका नाम सूरध्वज था। वे जाति के ब्राह्मण थे, सम्राट अकबर की सभा में उनकी पूरी पहुँच थी। बादशाह ने उनकी स्‍वामिभक्ति से प्रसन्‍न होकर उनको संडीले का अमीन नियुक्‍त किया था। वे महान साधुसेवी थे। पास में जो कुछ भी रहता था, सब संतों की सेवा में लगा देते थे।

वृन्दावन आगमन

एक बार सूरदास मदनमोहन के जीवन में अत्‍यन्‍त क्रान्तिपूर्ण घटना हुई। उन्‍होंने संडीले के सूबे के तेरह लाख रुपये साधुओं की सेवा में लगा दिये और खजाने वाली पेटी में एक काग़ज़ डालकर उसे राजधानी में भेज दिया। काग़ज़ में लिखा था-

"तेरह लाख संडीले आये, सब साधुन मिलि गटके।
सूरजदास मदनमोहनजी आधि रातको सटके।"

राजा टोडरमल ने बादशाह को बहुत समझाया कि- "अमीन ने बहुत बड़ा अपराध किया है, यदि कड़े-से-कड़ा दण्‍ड न दिया गया तो राज्‍य में अराजकता फैल जायगी।" पर बादशाह के हृदय पर तो सूरदास मदनमोहन की सत्‍यनिष्‍ठा, संतसेवा और भगवान की भक्ति का प्रभाव पड़ चुका था। अकबर ने क्षमा-दान किया और उन्‍हें बुला भेजा। पर सूरदास मदनमोहन तो नन्‍दनन्‍दन की राजधानी वृन्दावन में पहुँच चुके थे। परम पवित्र कालिन्‍दी के तट पर भक्ति की विलास-भूमि में प्रिया और प्रियतम की श्रृंगार-लीला का गान कर रहे थे। उन्‍होंने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया कि- "अब तो मैं किसी और का हो चुका हूँ। वृन्दावन की गलियों में झाड़ू देना मुझे अत्‍यन्‍त सुखद प्रतीत होता है।" वे ब्रजराज के भक्त थे। संसार से बहुत दूर आ चुके थे।

भगवान की स्तुति

सूरदास मदनमोहन जी कालिन्‍दी के तट पर भगवान की मुरली-माधुरी का रसास्‍वादन करने लगे। मधुर-मधुर वंशी ध्‍वनि की महती रसधार में नित्‍य निमग्‍न होकर भगवान से दर्शन की भीख मांगना उनका कार्यक्रम हो चला। वे अपने प्रियतम से कहा करते थे-

"मधु के मतवारे स्‍याम, खोलौ प्‍यारे पलकैं,
सीस मुकुट लट छुटी, और छुटी अलकैं।
सुर नर मुनि द्वार ठाढ़े, दरस हेतु किलकैं,
नासिका के मोति सोहैं, बीच लाल ललकैं।
पीतांबर, कर मुरली, स्रवन कुँडल झलकैं,
सूरदास मदनमोहन दरस दैहो भल कैं।"

सूरदास मदनमोहन ने लीला-गान में जिस काव्‍य-माधुर्य का स्रोत उँडेला है, वह उनकी बड़ी मधुर और मूल्‍यवान सम्‍पत्ति है। अपने भगवान में उनकी इतनी निष्‍ठा थी कि उन्‍होंने अपने नाम के साथ "मदनमोहन" प्रत्‍येक पद में जोड़ा है। उनके सरस पदों में उनकी मृदुता, सहृदयता और अडिग भक्ति की पूर्ण अभिव्‍यक्ति हुई है।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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