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माधौ, नैंकु हटकौ गाइ।
भ्रमत निसि-बासर, अपथ-पथ, अगह गहि नहिं जाइ।
छुघित अति न अघाति कबहूँ, निगम-द्रुम दलि खाइ।
अष्ट -दस-घट नीर अंचवति, तृषा तऊ न बुक्ताइ।
छहौं रस जौ धरौं आगैं, तऊ न गंध सुहाइ।
और अहित अभच्छ भच्छति, कला बरनि न जाइ।
ब्योम, धर, नद, सैल, कानन इते चरि न अघाइ।
नील खुर अरु अरुन लोचन, सेत सींग सुहाइ।
भुवन चौदह खुरनि खूंदति, सु घौं कहां समाइ।
ढीठ, निठुर, न डरति कांहू, त्रिगुन ह्यै समुहाइ।
हरै खल-बल दनुज-मानव-सुरनि सीस चढ़ाइ।
रचि-बिरचि मुख-भौंह-छबि, लै चलति चित्त चुराइ।
नारदादि सुकादि मुनिजन थके करत उपाइ।
ताहि कहु कैसै कृपानिधि, सकत सूर चराइ।।64।।
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