सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग केदारौ
(307) अरे मन! विषय-रस को पीना (विषयभोगों के चिन्तन में लगे रहना) छोड़ दे और श्री नन्दनन्दन का ध्यान कर! उनके शीतल (त्रयतापहारी) चरणकमलों की सेवा कर। (श्याम का) त्रिभंगी से स्थित चरणों से घुटनों तथा घुटनों से जाँघों तक का पूरा अंग स्वर्ण के सुन्दर दण्ड के समान है। कमर में बँधी पीताम्बर की कछनी की छटा ऐसी है, मानो कमल के केसर के खण्ड हों। किंकिणी (करधनी) का सुन्दर शब्द ऐसा लगता है, जैसे हंस के बच्चे मधुर स्वर में कूजते हों। नाभिरूपी कुण्ड से ऊपर जो रोमावली है, वह ऐसी प्रतीत होती है कि सहज स्वभाव से ही भौंरे उस कुण्ड की ओर जा रहे हैं। गले में मोतियों की माला है, वक्षःस्थल पर चन्दन लगा है और उस वर वनमाला लहरा रही हैं इन सबकी छटा ऐसी है, जैसे गंगा जी के किनारे पर श्याम तमाल की लता लहराती हो। सुन्दर भुजाओं के अग्र भाग पर कोमल-कोमल हाथ ऐसे सुशोभित हैं, जैसे कमल नाल पर कमल के पत्ते। सुकुमार मुख पर वंशी लगाये हैं और उस चन्द्रमुख पर गायों के खुरों से उठी धूलि लगकर बड़ी ही शोभा दे रही हैं। अधर, दन्तावली, कपोल, नासिका और नेत्र अत्यन्त ही सुन्दर हैं। गण्डस्थल (कानों के नीचे के भाग) पर कुण्डल इस प्रकार हिल रहे हैं, जैसे कामदेव नृत्य कर रहे हों। तिरछी (धनुषाकार) भौंहों के ऊपर (ललाट पर) तिलक की रेखा है। मस्तक पर मयूर पिच्छ (-का मुकुट) है। यह छटा ऐसी है मानो कामदेव ने (भौंह रूपी) धनुष पर (तिलक रेखा रूपी) बाण (केश रूपी) बादलों में (मयूर पिच्छरूपी) इन्द्रधनुष देख कर चढ़ा लिया है। सूरदास जी कहते हैं कि श्री गोपाल की यह शोभा भली प्रकार आँखों में भर लो और प्राणों के स्वामी श्री श्याम सुन्दर की शोभा देखते हुए पलकें भी मत गिरने दो- अपलक यह छवि देखते ही रहो। |
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