सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग बिलावल
(285) अपना स्वरूप अपने हृदय में ही मैंने प्राप्त किया। सद्गुरु ने रहस्य समझा दिया, अतः उनके शब्दों में ही प्रकाश (आत्मानुभव) प्राप्त हो गया। जैसे कस्तूरी मृग की नाभि में ही थी, किंतु वह भूला हुआ उसे ढूँढ़ता फिरता था; जब सावधान हो कर देखा, तब उसे अपने शरीर में ही पा गया। राजकुमारी को यह भ्रम हो गया कि मैंने अपने गले का मणिजटित आभूषण कहीं खो दिया है; किंतु जब सखियों ने बता दिया (कि वह तुम्हारे गले में ही है), तब उसके शरीर (चित्त) का ताप नष्ट हो गया। स्वप्न में स्त्री को भ्रम हो गया कि मेरा बालक कहीं खो गया है; किंतु जागने पर उसने देखा कि बच्चा तो ज्यों-का-त्यों (उसके पास सो रहा) है, वह न कहीं गया था और न कहीं से आया। सूरदास जी कहते हैं कि समझ हुए की ही यह दशा है (अज्ञान के कारण ही आत्मा को हम भूले हैं)। (वह तो अपना स्वरूप ही है। जब यह बात ज्ञात हो गयी,) तब मन-ही-मन वह मुसकरा पड़ा (चित्त आनन्द मग्न हो गया)। किंतु इस सुख की महिमा कही नहीं जा सकती (वह तो अवर्णनीय है), जैसे गूँगे पुरुष ने गुड़ खया हो। (वह मिठास का अनुभव तो करता है, पर उसे कह नहीं सकता।) |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पद | पृष्ठ संख्या |