सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग
(278) होनहार (प्रारब्ध) किसी से भी टलती नहीं। कहाँ वह राहु और कहाँ वे सूर्य-चन्द्र (बहुत दूरी है इनमें)! किंतु इनका संयोग भी (ग्रहण के समय) आ पड़ता है। वसिष्ठ मुनि विद्वान् तथा ज्ञानी थे और उन्होंने बहुत श्रम से, सँभालकर (राज्याभिषेक का) मुहूर्त निश्चित किया; किंतु (परिणाम यह हुआ कि) श्री राम के पिता महाराज दशरथ की मृत्यु हुई, सीता जी का हरण हुआ, श्री राम को वनवासी वेश धारण कर वनवास का कष्ट झेलना पड़ा। रावण ने तैंतीसों करोड़ देवताओं को जीत लिया था और त्रिभुवन पर राज्य कर रहा था, मृत्यु को भी बाँध कर उसने कुएँ में बंद कर रखा था, किंतु प्रारब्ध वश वह भी मारा गया। अर्जुन के तो (स्वयं) श्री हरि ही सारथि थे, पर उन्हें भी वन में निकलना (वनवास भोगना) पड़ा! राज सभा में द्रौपदी का वस्त्र दुःशासन ने खींचा (यद्यपि द्रौपदी श्री कृष्ण की परम भक्ता थीं)। संसार में हरिश्चन्द्र के समान कौन दानी होगा, पर उन्हें नीच के घर (चाण्डाल के यहाँ) सेवा करनी पड़ी। यदि कोई घर छोड़ कर बहुत-से देशों में दौड़ता (घूमता) फिरे, तो भी उसका प्रारब्घ उसके साथ ही घूमता है। तीनों लोकों में देवता, मनुष्य और जितने भी देह धारी हैं, सभी होन हार (प्रारब्ध) के वश में हैं। अतः सूरदास जी कहते हैं कि प्रभु ने जो विधान किया है, वही होगा, (तब) चिन्ता करके कौन मरता रहे (चिन्ता का व्यर्थ कष्ट क्यों उठाया जाय)? |
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