(255)
इक कौं आनि ठेलत पाँच ।
करुनामय, कित जाउँ कृपानिधि, बहुत नचायौ नाच ।।
सबै कूर मोसौं ऋन चाहत, कहौ कहा तिन दीजै !
बिना दियैं दुख देत दयानिधि, कहौ कौन बिधि कीजै ।
थाती प्रान तुम्हारी मोपै जनमत हीं जो दीन्ही ।
सो मैं बाँटि दई पाँचनि कौं, देह जमानति लीन्ही ।।
मन राखैं तुम्हरे चरननि पै, नित-नित जो दुख पावै ।
मुकरि जाइ, कै दीन बचन सुनि, जमपुर बाँधि पठावैं ।।
लेखौ करत लाखही निकसत, को गनि सकत अपार ।
हीरा जनम दियौ प्रभु हमकौं, दीन्ही बात सम्हार ।।
गीता-वेद-भागवत मैं प्रभु, यौं बोले हैं आथ ।
जन के निपट निकट सुनियत हैं, सदा रहत हौ साथ ।।
जब जब अधम करी अधमाई, तब तब टोक्यौ नाथ ।
अब तौ मोहि बोलि नहिं आवै, तुम सौं क्यौं कहौं गाथ ॥
हों तौ जाति गँवार, पतित हौं, निपट निलज, खिसिआनौ ।।
तब हँसि कह्यौ सूर-प्रभु सो तो, मोहूँ सुन्यौ घटानौ ।।255।।
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