सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग
(234) अब भला, मैं और किसके द्वारपर (शरण लेने) जाऊँ? आप संसार के पालन कर्ता परम चतुर एवं (भक्तों के लिये) चिन्तामणि रूप हैं और आपका नाम ‘दीनबन्धु’ मैंने सुना हैं माया की कपट का जुआ है और लोभ, मोह, मद आदि भारी दोष (दुर्योधनादि) कौरव हैं; हे करुणामय! मेरी बुद्धिरूपी स्त्री (द्रौपदी) इनके परवश हो गयी है और अब हार (निराश हो) गयी है, आपक इसकी पुकार सुनें। क्रोधरूपी दुःशासन लज्जा रूपी वस्त्र पकड़े है (क्रोध मुझे निर्लज्ज बना रहा है)। सब प्रकार से मेरी दशा अंधे (धृतराष्ट्र) के समान (किंकर्तव्यविमूढ़) हो गयी हैं सूरदास जी कहते हैं- (प्रभो!) श्री हरि की दासी समझ कर (मेरी बुद्धि का उद्धार करने) देवता, मनुष्य (सत्पुरुष) एवं मुनि- कोई पास नहीं आता (अतः आप ही अब इसका उद्धार करें)। |
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