सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग धनाश्री
(227) हे त्रिभुवनपति! हे मेरे स्वामी! सुनो, यदि आप मुझ अधम की अधमता देखें, तब तो कुछ कहा ही नहीं जा सकता। हे हरि! जब से जन्म हुआ और मृत्यु होने के पूर्वतक (जीवन भर) पाप करने से कभी तृप्ति नहीं हुई, अब तक भी मन कामनाओं में ही मग्न है, वैराग्य उत्पन्न ही नहीं हुआ। अत्यन्त दुर्बुद्धि, ज्ञान से अनभिज्ञ हूँ, हृदय में मूर्खता ही निवास करती हैं (काम, क्रोध, लोभ, मोह और मद - इन) पाँचों ठगों को प्रत्यक्ष खड़े देखकर भी हठ पूर्वक स्वयं ठगा गया। इसीलिये वेद और स्मृतियों की आज्ञा को तो, जो भगवद्धाम में जाने का मार्ग है, मैंने भुला दिया और जो कर्मरूपी काँटों से भरा कामना रूपी धन है, उसी का मार्ग मुझे दिखायी पड़ा (कामना पूर्ति कके लिये ही कर्म करता रहा)। मैं क्या कहूँ, हे कन्हाई! आप तो मेरी सब दुर्बुद्धि जानते ही हैं। इस पतित सूरदास का कहीं ठिकाना नहीं है, इसे (आप ही) अपनी शरण में रख लें।
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