सूर विनय पत्रिका
अनुवादक - सुदर्शन सिंह
राग सारंग
(216) हे हरि! अब मैं शरणागत हूँ, आपकी शरण में आया हूँ। हे कृपानिधान! जिस कृपा दृष्टि से देख कर आपने (अन्य) पतितों को अपनाया है, उसी कृपा दृष्टि से मुझे भी देखिये। मेरी इन्द्रियों ने मिलकर करताल, मृदंग, झाँझ, वीणा और वंशी बजायी (अपनी-अपनी तृप्ति का राग छेड़ रखा) और उन सबों ने मेरे मन को नटों के नायक की भाँति नचाया (मन उनकी तृप्ति के उपाय सोचने में ही चंञ्चल रहा)। रीति के अनुकूल संसार का सारा संगीत उसने प्रकट किया और अंग-प्रत्यंग बनाकर नाचता रहा। (सब प्रकार से संसार की आसक्ति ही प्रकट हुई - सांसारिक भोगों को पाने के ही सब उद्योग किये।) काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह रूपी तानों की तरंग मे ही गाता रहा। (इनके आवेश में ही मग्न रहा।) सूरदास जी कहते हैं- पृथ्वी पर अनेक शरीर धारण करके अनेक प्रकार के भाव दिखाये (अनेक प्रकार के कर्म किये), चौरासी लाख प्रकार के नृत्य नाच आया (चौरासी लाख योनियों में जन्म लेता भटका किया), किंतु कभी पूरा नहीं पड़ा। (कभी पूर्णत्व-परमसुख की प्राप्ति नहीं हुई।) |
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